पाली न्यूज़ डेस्क, पाली सीओपीडी (क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) अर्थात फेफड़ों की नली में स्थायी सूजन यानी का पूर्ण उपचार तो संभव नहीं, लेकिन दवाइयों के सहारे इसको नियंत्रण कर सकते है। कुल मरीजों में से करीब 16 फीसदी से अधिक इससे लोग ग्रस्त हैं।सीओपीडी रोग के दौरान कफ या खांसी की समस्या तीन माह तक रहने पर यह गंभीर हो जाता है और इसे क्रोनिक ब्रोंकाइटिस कहते हैं। अस्थमा पीड़ित भी सीओपीडी की श्रेणी में आते हैं। लंबे समय तक धूम्रपान (तंबाकू) के धुएं से होने वाला रोग सीओपीडी होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ी, गोबर के कंडे, केरोसिन, कोयले से चूल्हे पर भोजन पकाने, तलने-भूनने, पानी गर्म करते समय उठने वाले धुएं से सीओपीडी रोग हो सकता है। खेतों में उड़ने वाली धूल से भी सीओपीडी रोग का खतरा हो सकता है। दो मौसम के बीच के समय में यानी संधि काल में भी सीओपीडी रोग होने का खतरा हो सकता है।
फेफड़े होते हैं कमजोर
सीओपीडी के मरीजों के फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। मरीजों के फेफड़ों का एक्स-रे, सीटी स्कैन, रक्त की जांच, इसीजी सहित आवश्यक टेस्ट करते हैं। रिपोर्ट के आधार पर फेफड़ों की सूजन कम करने के लिए इन्हेलर, नेबुलाइजर के जरिए अलग-अलग ब्रोंकोडायलेटर दवाई दी जाती है।
रोगी को सांस लेने में होती परेशानी
सीओपीडी के हर हमले में मरीज के फेफड़े 2-5 फीसदी नष्ट होते हैं। दवाई देकर मरीज की सीओपीडी (क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) को नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन इससे 100 फीसदी मुक्त नहीं कर सकते हैं। सीओपीडी में सांस लेने में लगातार दिक्कत होती है। फेफड़ों में हवा का प्रवाह सीमित हो जाता है। चिकित्सक भी मरीज की हैल्थ हिस्ट्री व क्लिनिकल परीक्षण पर भरोसा करते हैं। ऐसे में कई बार बीमारी के शुरुआती संकेतों पर ध्यान नहीं जाता। लक्षण सामने आने तक यह बीमारी गंभीर रूप ले चुकी होती है। ऐसे मरीजों की बीमारी स्पाइरोमीट्री नामक लंग फंक्शन टेस्ट से आसानी से पकड़ी जा सकती है, लेकिन इसका उपयोग कम हो रहा है। इसका मुख्य कारण स्पाइरोमीटर्स की कम उपलब्धता और इस क्षेत्र में इनोवेशन की कमी है।
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