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रेखा के उस संघर्ष की दास्तां, जिनका साक्षी रहा उनका 'मंदिर जैसा बंगला'

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Getty Images मुंबई में एक शादी समारोह के दौरान बॉलीवुड अभिनेत्री रेखा. (फाइल फोटो)

चकाचौंध से दूर रहने वाली, एकांतप्रिय और एक हद तक रहस्मयी रेखा.

वो रेखा जिन्हें आज उनकी भव्य साड़ियों और डीवा इमेज लिए ज़्यादा जाना जाता है, जिनकी मांग में भरा सिंदूर तो गॉसिप में रहता है, लेकिन बचपन में मिले गहरे घावों और फ़िल्म इंडस्ट्री में लंबे संघर्ष की बात नहीं होती.

फ़िल्मों से दूर होने के बावजूद वो रेखा हाल ही में जब आईफ़ा अवॉर्ड में परफ़ॉर्म करती हैं तो उनकी चर्चा किसी नई अभिनेत्री से भी ज़्यादा होती है. वो सदाबहार रेखा आज 70 बरस की हो गई हैं.

2014 की फ़िल्म ‘सुपर नानी’ के बाद से रेखा किसी भी फ़िल्म में मुख्य भूमिका में नहीं दिखी हैं. वो आमतौर पर इंटरव्यू भी नहीं देतीं. उनके बंगले की दीवारों के पार ‘पैपराज़ी’ के तेज़ कैमरे तक नहीं पहुंचते.

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मगर लंबे समय के बाद पिछले साल जब रेखा प्रतिष्ठित ‘वोग' मैगज़ीन के कवर पर नज़र आयीं तो उस इंटरव्यू की सबसे ख़ास बात थी कि रेखा का बार-बार अपनी मां को याद करना.

यहां इस बात का भी ज़िक्र था कि रेखा का घर उनकी मां के नाम पर था- पुष्पावल्ली.

मुंबई के बांद्रा बैंडस्टैंड पर आज के सुपरस्टार शाहरुख ख़ान और सलमान ख़ान के घरों से से कुछ दूरी पर है रेखा का घर, जिसके अतीत में रेखा और उनकी मां पुष्पावल्ली के संघर्ष की दास्तां भी छिपी है.

हर इंसान की कहानी मां से ही शुरू होती है. वो मां जो साया बनकर आपके साथ रहती है.

रेखा के जीवन में भी मां शायद सबसे अहम किरदार हैं.

रेखा पर किताब लिखते समय रिसर्च के दौरान मेरे सामने भी उनका ये अनसुना पहलू आया था.

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मैंने फ़िल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली से पूछा कि उन्होंने ‘उमराव जान’ की भूमिका के लिए रेखा को ही क्यों चुना जबकि उस समय स्थापित और अभिनय में बेहतर मानी जाने वाली स्मिता पाटिल का विकल्प उनके पास था?

उन्होंने फौरन जवाब दिया, “रेखा की आंखों में गिरकर उठने की एक कैफ़ियत थी. ज़िंदगी लोगों को हिलाकर रख देती है. इंसान बार-बार गिरता है. मगर जब तक वो हर बार उसी ताक़त से ना उठे, उसके अंदर जीने का अंदाज़ पैदा नहीं होता. टूटकर बिखरने के बाद वापस संभलने का यही एहसास मुझे रेखा की आंखों में नज़र आया.”

मुज़फ़्फ़र अली ने जिस एहसास का ज़िक्र किया वो शायद रेखा के अतीत, उनकी मां से जुड़ा है जिसमें दुख और दुश्वारियां झेलने की कहानी और उनपर जीत पाने की दास्तां भी है.

बचपन का संघर्ष image BBC आईफ़ा अवॉर्ड की ट्रॉफ़ी के साथ रेखा.

कहानी शुरू होती है 1947 में जब मद्रास का प्रसिद्ध जेमिनी स्टूडियोज़ तमिल फ़िल्म ‘मिस मालिनी’ का निर्माण कर रहा था. फ़िल्म की हीरोइन थीं एक नयी अभिनेत्री पुष्पावल्ली.

अपनी नौकरी छोड़कर आए एक ख़ूबसूरत नौजवान रामास्वामी गणेशन को भी इस फ़िल्म में एक छोटा-सा रोल मिल गया. इसी फ़िल्म के सेट पर दोनों की नज़दीकियां बढ़ीं.

आने वाले वक़्त में रामास्वामी गणेशन, जेमिनी गणेशन के नाम से तमिल सिनेमा के सबसे बड़े सितारों में से एक बने. जेमिनी और पुष्पावल्ली फ़िल्मों में एक हिट जोड़ी के रूप में पहचाने गए.

हालांकि जेमिनी शादीशुदा थे लेकिन पुष्पावल्ली के साथ उनका रिश्ता किसी से छुपा नहीं था.

पुष्पावली चाहती थीं कि जेमिनी उनसे शादी करके घर बसा लें लेकिन उन्होंने कभी भी भी इस रिश्ते को नाम या सामाजिक मान्यता नहीं दी.

10 अक्तूबर, 1954 में पुष्पावल्ली और जेमिनी की पहली बेटी का जन्म हुआ. उसका नाम रखा गया- भानुरेखा गणेशन.

भानुरेखा का जन्म ही अफ़वाहों से घिरा हुआ था. इन अफ़वाहों और निजी ज़िंदगी से जुड़ी चर्चाओं ने ताउम्र उसका पीछा नहीं छोड़ा. बचपन से ही मां ने बताया था कि उसका नाम भानुरेखा गणेशन है.

इस नाम के ज़रिए वो अपनी बेटी को वो हक़ देना चाहती है जिसके लिए वो ख़ुद हमेशा तरसी थी. गणेशन नाम उस सम्मान और गरिमा का अहसास दिलाता था.

भानुरेखा के बाद जेमिनी और पुष्पावली की दो बेटियां और हुईं. लेकिन भानुरेखा छोटी उम्र से ही जान गयी थी कि उसके पिता एक दूसरे घर में रहते हैं जहां उनका एक और परिवार है.

वो परिवार जिसे वो बेहद प्यार करते हैं. पूरे बचपन उसने अपनी मां को धीरे-धीरे टूटते देखा. एक बच्चे के मन पर ऐसे अभिघात का असर उम्र भर जाता नहीं है.

पुष्पावल्ली ने पिता की कमी को पूरा करने की हर मुमकिन कोशिश की. मगर ये आसान नहीं था. पुष्पावल्ली की उम्र बढ़ रही थी और फ़िल्मों में रोल कम होने लगे थे.

अपने परिवार के लिए वो लगातार शूटिंग पर जाती रहीं. अपने बचपन को याद करते हुए रेखा ने एक इंटरव्यू (मूवी मैगज़ीन, मई 1987) में कहा था, “हमारी मां के लिए हमारा प्यार एक जुनून था, और इसकी वजह ये भी थी कि वो कभी घर पर नहीं होती थीं. वो अपना ज़्यादातर टाइम शूटिंग पर बिताती थीं. जिस दिन वो घर पर होती थीं वो दिन हमारे लिए किसी त्योहार की तरह होता था. हम सब उनकी गोद में बैठना चाहते थे. उनकी शख़्सियत बड़ी प्रभावशाली थी. मैं उनसे नाराज़ भी होती थी कि वो हम पर इतनी हावी क्यों हैं और इसलिए भी कि हमारी ज़रूरत के वक्त वो हमारे पास क्यों नहीं होतीं? लेकिन मैं हमेशा से उनसे बहुत ज़्यादा प्रभावित रही.”

धीरे धीरे मां पुष्पावल्ली को फ़िल्मों को ऑफ़र मिलने बेहद कम हो गए थे. हालात बिगड़ते गए और परिवार का ख़र्च चलाने के लिए कर्ज़ लेने की नौबत आ गई.

तनाव ने पुष्पावल्ली की सेहत भी ख़राब कर दी थी. कर्ज़ चढ़ता जा रहा था. पूरा परिवार बर्बादी की कगार पर आ गया था.

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फ़िल्म दुनिया का अंधेरा सच image Getty Images साल 2003 में एक म्यूज़िक एल्बम की लॉन्च के दौरान रेखा.

फ़िल्मी दुनिया भानुरेखा को कोई ख़ास पसंद नहीं थी. अपनी मां के संघर्ष में वो इस दुनिया का अंधेरा सच देख चुकी थीं. मगर वो परिवार की आखिरी उम्मीद थीं.

1990 में फ़िल्मफेयर को दिए एक इंटरव्यू में रेखा ने कहा था, “नौवीं क्लास में मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई और 14 साल की उम्र में मुझसे काम करने को कहा गया. मुझे तब तक ये नहीं पता था कि मेरी मां पर कितना कर्ज़ है. तो मुझे फ़िल्मों में काम करने की बात सही नहीं लगी.”

क़िस्मत से ऐसा मौक़ा आया जब रेखा को बंबई में फ़िल्म बनाने वाले एक निर्माता ने साइन करने में दिलचस्पी दिखाई. पुष्पावल्ली अपनी 13-14 साल की बेटी को लेकर बंबई पहुंच गयीं.

रेखा अपना शहर छोड़कर बंबई तो आ गई थीं, मगर दिल ही दिल में बेहद घबराई हुई थीं. ये शहर न उनके अकेलेपन को समझता था, न उसकी ज़बान को. उन्हें रह-रहकर अपनी मां पर गुस्सा आता था जिन्होंने उनकी मर्ज़ी के बिना उन्हें यहां धकेल दिया था.

image BBC

सिमी ग्रेवाल को 2004 में दिए इंटरव्यू में रेखा कहती हैं, “बंबई एक जंगल जैसा था, जहां मैं खाली हाथ बिना किसी हथियार के आ पहुंची थी. वो मेरी ज़िंदगी का बेहद डरावना दौर था…यहां मर्दों ने मेरी संवेदनशीलता का फ़ायदा उठाने की कोशिश की...एक 13 साल की बच्ची के साथ ऐसा होना डरावना था.”

फिर एक दिन, भानुरेखा ने तय कर लिया कि वो उस सम्मान को पाकर रहेंगी जो उनकी मां को नहीं मिला. बंबई में इसकी शुरुआत हुई अपने नाम से सरनेम गणेशन को हटाने से.

भानुरेखा गणेशन अब रेखा बन गयीं. रेखा का बंबई में पहला घर था जुहू में होटल अजंता का कमरा न. 115 जहां वो पहली फ़िल्म की शूटिंग के दौरान अपनी मां के साथ रहीं.

इसके बाद लंबे समय तक मां-बेटी किराए के मकानों में रहीं. एक सुकून भरा घर शुरुआत से कभी था ही नहीं. कम उम्र में संघर्ष करने निकल पड़ी रेखा को अपनी मां के साथ इंडस्ट्री काफी मुश्किल झेलनी पड़ीं.

हिंदी फ़िल्मों में काम करने आयी रेखा को शुरुआत में हिंदी तक ठीक से नहीं आती थी. उनके सांवले रंग-रूप, ज्यादा वज़न और ‘33 इंच की कमर’ का पूरी इंडस्ट्री में बुरी तरह मज़ाक उड़ाया गया.

रेखा कई इंटरव्यूज़ में उस दौर का ज़िक्र कर चुकी हैं, तीन अगस्त, 2008 को अंग्रेजी अख़बार टेलीग्राफ़ से उन्होंने कहा था, “मेरे काले रंग और दक्षिण भारतीय चेहरे की वजह से मुझे हिंदी फ़िल्मों की ‘अग्ली डकलिंग’ कहा जाता था. मुझे बेहद तकलीफ होती थी जब लोग उस दौर की हीरोइनों से मेरी तुलना करते और कहते कि मैं उनके सामने कुछ भी नहीं हूं.”

पहली ही फ़िल्म ‘अनजाना सफ़र’ में एक ‘किसिंग सीन’ के लिए मजबूर होने के विवाद से लेकर, फ़िल्मों से निकाले जाने और कई नाकाम रिश्तों तक रेखा के जीवन में ड्रामाई घटनाओं की कोई कमी नहीं रही.

शुरुआती दौर में रेखा के साथ विज्ञापन फ़िल्म बनाने वाले फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने मुझे बताया था, “वो तेरह-चौदह साल की रही होंगी जब मैंने उनक साथ कुछ एड-फ़िल्में की थी. उन्हें हिंदी नहीं आती थी फिर भी मैं हैरान था कि वो किसी वजह से हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में टिकी हुई थीं. लेकिन मैं उनकी आंखों की चमक और कैमरे के सामने उनके ज़बरदस्त आत्मविश्वास को कभी नहीं भूल सकता. उस समय भी उनमें कुछ अलग बात थी.”

कामयाब फ़िल्मों का दौर image Getty Images 1980 तक आते आते घर, खून-पसीना, मुकद्दर का सिकंदर और खूबसूरत जैसी कामयाब फ़िल्मों से वो टॉप अभिनेत्रियों की लिस्ट में आ गईं.

इस सारे आत्मविश्वास की बड़ी वजह रेखा अपनी मां को बताती हैं जो इस बेहद मुश्किल समय में परछांई की तरह उनके साथ रहीं.

पिछले साल वोग मैगज़ीन को दिए इंटरव्यू में रेखा ने कहा, ‘मां मेरी मेंटॉर थीं, उन्हें देखकर मुझे लगता था कि जैसे वो देवी हैं. उन्होंने मुझे प्यार और सौम्यता से जीवन जीना सिखाया. वो मुझसे हमेशा कहती थीं कि तुम कभी भी अपनी आंखों की चमक को खोने मत देना.’

वो चमक रेखा ने खोने नहीं दी और फिर, कुछ साल में वक़्त बदला. खासतौर पर 1976 की फ़िल्म ‘दो अन्जाने’ में उनके अभिनय की तरफ सबका ध्यान गया.

हिंदी ना जानने वाली, ज्यादा वज़न के लिए भद्दा मज़ाक झेलने वाली रेखा ने सत्तर के दशक के अंत तक अपनी धाराप्रवाह हिंदी-उर्दू और बेहतरीन फिटनेस के लिए जानी जाने लगीं.

अपने करियर में हार ना मानने का जुझारूपन उन्हें अपनी मां से मिला था.

रेखा ने वोग मैगज़ीन से अपने इंटरव्यू में कहा, ‘मां ने हमेशा मुझे सिखाया कि मौलिकता पर जोर दो. वो करो जो दिल चाहे. वो नहीं जो दूसरा तुम पर थोपे.’

1980 तक आते आते घर, खून-पसीना, मुकद्दर का सिकंदर और खूबसूरत जैसी कामयाब फ़िल्मों से वो टॉप अभिनेत्रियों की जमात में आ गईं.

फिर इजाज़त, कलयुग औऱ उत्सव जैसी समानांतर सिनेमा की फ़िल्मों में यादगार अभिनय किया.

अस्सी के दशक के अंत में जब श्रीदेवी की तूती बोलती थी, रेखा ने ब्लॉकबस्टर खून भरी मांग (1988) एक्शन रोल निभाकर सबको हैरान कर दिया.

रेखा के साथ फ़िल्म घर और इजाज़त बना चुके निर्देशक-गीतकार गुलज़ार ने मुझसे कहा था, “रेखा किरदार को लिबास की तरह पहन लेती हैं.”

सोचिए जिस अभिनेत्री को शुरुआत में हिंदी-उर्दू बोलना तक तक नहीं आती थी उसने कुछ साल बाद ख़ूबसूरत उर्दू बोलते हुए ‘उमराव जान’ के रोल के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किया.

अमिताभ से रिश्ते की कहानी image Getty Images

लेकिन रेखा का ज़िक्र आज भी सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ उनकी ऑनस्क्रीन केमेस्ट्री औऱ निजी जिंदगी में नज़दीकियों को लेकर ज्यादा किया जाता है.

इसकी वजह काफ़ी हद तक रेखा खु़द भी हैं. उन्होंने अपने व्यक्तित्व और करियर में हुए का मेकओवर का श्रेय हमेशा अमिताभ बच्चन को दिया.

कभी इशारों में तो कभी घुमा फिरा कर उन्होंने यह जता दिया दिया कि उनकी कायापलट की प्रेरणा वही हैं. वह हमेशा शर्माते, सकुचाते हुए अपनी ज़िंदगी में अमिताभ की अहमियत की बातें करतीं.

वो ये बताना नहीं भूलतीं थीं कि अमिताभ की आमद ने उनकी ज़िंदगी में नाटकीय परिवर्तन कर उन्हें कहां से कहां पहुंचा दिया. जीवन में अमिताभ की अहमियत उन्होंने अपनी मां के बराबर बताई थी.

आज भी रेखा के पूरे करियर से ज्यादा ज़िक्र अमिताभ के साथ उनकी नज़दीकियों का ही होता है.

इस एकआयामी चर्चा के शोर में उनकी अपनी मेहनत और बेमिसाल कामयाबी कहीं पीछे छूट जाती है. खासतौर पर अपने परिवार के प्रति उनका समर्पण.

रेखा और उनकी मां को हमेशा से एक बड़े और सुंदर घर का अरमान था. लंबी जद्दोजहद के बाद अस्सी के दशक की शुरुआत में रेखा ने अपनी मां का ये सपना भी पूरा कर दिया.

मुंबई के बांद्रा में वो खूबसूरत घर जिसका नाम उन्होंने अपनी मां के नाम पर पुष्पावल्ली रखा था. “मुझे मंदिर जाकर प्रार्थना करने की जरूरत नहीं महसूस होती, मेरा घर ही मंदिर जैसा है,” रेखा ने वोग मैगज़ीन को दिए इंटरव्यू में यही कहा है.

रेखा की छोटी बहन धनलक्ष्मी के पति और अभिनेता तेज सप्रू ने मुझे बताया कि रेखा एकाकी योद्धा हैं, “सभी बहनें अपनी मां को बहुत प्यार करती थीं पर रेखा इसलिए ख़ास हैं क्योंकि उन्होंने वाक़ई मुश्किल हालात में सब कुछ अकेले ही किया. वो शानदार लड़ीं और जीतीं. अपने परिवार को एक मुक़ाम तक पहुंचाने के लिए उन्होंने बड़े तूफ़ान झेले.”

बेकार की अनगिनत फ़िल्मों में काम करने के लिए रेखा की काफ़ी आलोचना होती थी.

लेकिन रेखा के जीजा बताते हैं कि रेखा ने सत्तर के दशक में आंख मूंदकर इसलिए फ़िल्में साइन की क्योंकि उन पर अपनी मां, दो भाइयों और तीन बहनों वाले अपने बड़े परिवार की ज़िम्मेदारी थी.

जितनी ज्यादा फ़िल्में वो करती उतने ही उन्हें पैसे मिलने वाले थे. उस समय नायक और नायिकाओं की फीस के बीच बहुत बड़ा फासला होता था.

परिवार की ज़िम्मेदारियों को बख़ूबी निभाया image Getty Images रेखा ने दिल्ली के बिजनेसमैन मुकेश अग्रवाल से मुलाकात के एक महीने के भीतर ही शादी कर ली थी. मगर रिश्ता चला नहीं और दोनों अलग हो गए.

रेखा ने अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के बारे में एक बार कहा था (फ़िल्मफेयर, 2011), “बहुत बार तो मैं अपनी मां की भी मां थी और अपने भाई बहनों की भी. जब से मैं पैदा हुई मेरे अंदर मातृत्व भाव बहुत ज्यादा रहा है...यह ताउम्र मेरे साथ रहा, मेरे साथ रहने वालों को मिला. पर मुझे लगता है कि यह एक महिला की ही सोच हो सकती है.''

''कुल लोग जिंदगी के खांचो में फिट होते है. मैं घर की कमाऊ सदस्य थी. मुझे रातोंरात बडे होकर अपने परिवार, भाई- बहनों की देखभाल करनी थी. मेरे भाई की असमय मृत्यु हो गयी. मैंने अपने बहुत से सहयोगी कलाकारों के भाई बहनों को शराब और ड्रग्स के नशे के आगोश में जाते देखा हैं. मैंने बहुत समय पहले ही खुद से यह वादा कर लिया था कि मैं अपने परिवार को इससे बचाऊंगी.”

ख़ुद से किया ये वादा रेखा ने बख़ूबी पूरा किया. अपनी बहनों की शादी करने के बाद 1990 में रेखा का ख़ुद शादी करके घर बसाने का सपना भी पूरा हो गया था.

उन्होंने दिल्ली के बिजनेसमैन मुकेश अग्रवाल से मुलाकात के एक महीने के भीतर ही शादी कर ली थी. मगर रिश्ता चला नहीं और दोनों अलग हो गए.

शादी के करीब सात महीने बाद 2 अक्तूबर 1990 को उनके पति ने आत्महत्या कर ली थी. मीडिया के लिए मुकेश की आत्महत्या की ख़बर सबसे बड़ी सनसनी थी.

मीडिया और फ़िल्म इंडस्ट्री ने भी मुकेश अग्रवाल की मौत के लिए रेखा को ज़िम्मेदार ठहराया. जगह-जगह लोगों ने रेखा की फ़िल्मों के पोस्टरों पर कालिख पोती.

बिंदास रेखा महीनों के लिए खामोश हो गयीं. अगले ही साल उन्होंने सुपरहिट फ़िल्म ‘फूल बने अंगारे’ से वापसी तो की मगर रेखा पूरी तरह बदल चुकी थीं.

उसी साल रेखा की मां पुप्षावल्ली की मद्रास में एक लंबी बीमारी के बाद मौत हो गयी. रेखा ने अपनी ज़िंदगी मे बहुत से उतार चढ़ाव देखे पर हर मोड़ पर उनकी मां उनके साथ खड़ी रहीं.

उनकी मौत तक रेखा को इस बात का अहसास था कि उनकी मां मानो उनका सुरक्षा घेरा बनकर उनके साथ हैं, हर वक़्त.

रेखा का बंगला इस बात की बानग़ी और नज़ीर दोनों ही हैं कि मां बेटी के बीच रिश्ता कितना करीब था. वो बंगला जो आज भी उनके दिल के क़रीब है.

पति मुकेश अग्रवाल की खुदकुशी और उसके बाद अपनी मां के देहांत के बाद ही रेखा शायद पूरी तरह बदल गयीं. उन्होंने मीडिया से दूरी बना ली. उनके साक्षात्कारों के स्वर और सुर दोनों बदल गए थे.

अपने पहले के बेबाक़ और ईमानदार जवाबों से ठीक उलट, उन्होंने ख़ुद को मानो समेट लिया.

अपने आसपास एक दीवार सी खड़ी कर ली जो आज भी कभी नहीं गिरती. जो थोड़े-बहुत इंटरव्यू वो देती हैं उनमें भी उनके जवाब अब ख़ुद की बनाई सरहदों में महफूज़ होते हैं.

ऐसा लगता है कि रेखा ने जानबूझ कर अपनी एकांकी स्वप्न सुंदरी या डीवा की शख्सियत ओढ़ रखी है. उनके साक्षात्कार अब निराकार और दार्शनिक से बन गए हैं.

लेकिन ‘पुष्पावल्ली’ के साए में जीवन बिता रही रेखा बिना फ़िल्मों सक्रिय रहते हुए भी फ़िल्म इंडस्ट्री की सबसे प्रभावशाली शख्सियतों में से एक हैं.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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