चीन की धीमी अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने के लिए चीनी नेता जुटे हुए हैं. ये नेता एक साथ कई कोशिशें कर रहे हैं.
अर्थव्यवस्था को सुस्ती से निकालने के लिए पैकेज दिए गए हैं. लोगों को नकद देने जैसे कदम उठाए गए हैं.
विकास को गति गति देने के लिए इमरजेंसी मीटिंग की गई है और बुरे हाल में चल रहे प्रॉपर्टी मार्केट को मज़बूती देने के लिए कदम उठाए गए हैं.
ये सारे फ़ैसले बीते दिनों लिए गए हैं.
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल ही में 'संभावित ख़तरे' और 'गंभीर चुनौतियों' से निपटने की तैयारी की बात की. कइयों का मानना है कि जिनपिंग का इशारा अर्थव्यवस्था की ओर था.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें चीन के लोगों पर क्या असरचीन की ख़राब अर्थव्यवस्था के बारे में काफ़ी वक़्त से ख़बरें आ रही हैं.
लेकिन इस बात का पता कम ही चल पा रहा है कि आख़िर स्लोडाउन ने चीन के आम लोगों को किस हद तक प्रभावित किया है.
चीनी नागरिकों की हताशा और उम्मीदों की बातें सामने नहीं आतीं. चीन में उन्हें काफी ज्यादा सेंसर किया जाता है.
लेकिन हाल के दो रिसर्च से कुछ हद तक अंदाजा लगता है कि चीन में अर्थव्यवस्था की तस्वीर कैसी है.
पहला अध्ययन एक सर्वे को लेकर है, जो अर्थव्यवस्था के प्रति चीन के लोगों के रुख़ को जाहिर करता है. ये बताता है कि लोग निराशावादी बनते जा रहे हैं और अपने भविष्य को लेकर भ्रम की स्थिति में हैं.
दूसरा अध्ययन आर्थिक दिक्कतों की वजह से लोगों के प्रदर्शन के बारे में बताता है. ये प्रदर्शन लोग बाहर निकल कर भी कर रहे हैं और ऑनलाइन भी.
हालांकि ये पूरी तस्वीर नहीं है. फिर भी ये चीन के मौजूदा आर्थिक हालात की एक दुर्लभ झलक दिखा ही देती है.
इससे ये भी पता चलता है कि लोग अपने भविष्य के बारे में क्या सोच रहे हैं?
सिर्फ रियल एस्टेट का संकट ही नहीं, इससे भी आगे बढ़ कर चीन के बढ़ते सार्वजनिक व्यय और बढ़ती बेरोज़गारी ने लोगों की बचत और ख़र्च दोनों पर बुरी तरह असर डाला है.
इस वजह से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन पांच फीसदी के अपने आर्थिक विकास दर के लक्ष्य से चूक सकता है.
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए ये निराशाजनक बात होगी और ये इसका रुख़ कुछ हद तक नरम कर देगा.
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अब तक चीन की जबरदस्त ग्रोथ ने इसे दुनिया की बड़ी ताकत बना दिया है.
चीनी शासन ने हमेशा आर्थिक स्थिरता को लोगों के लिए एक पुरस्कार के तौर पर इस्तेमाल किया है. स्थिर विकास की वजह से चीनी जनता पर सरकार का नियंत्रण बना रहा है.
चीन की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के खत्म होते ही धीमी हो गई थी. दरअसल अचानक पूरी तरह से तीन साल के लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया है.
हारवर्ड यूनिवर्सिटी के अमेरिकी प्रोफे़सर मार्टिन व्हाइट, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑन चाइनाज इकोनॉमी के स्कॉट रोज़ेल और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मास्टर्स स्टूडेंट माइकल एलिस्की के अध्ययन से कोरोना महामारी के बाद और पहले चीनी अर्थव्यवस्था की हालात के बारे में पता चलता है.
उन्होंने चीन की अर्थव्यवस्था का अध्ययन 2004 और 2009 में किया.
ये शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने से पहले का अध्ययन है. उसके बाद उन्होंने जिनपिंग के शासन के दौरान 2014 और 2023 में चीन की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया. सैंपल साइज 3000 से लेकर 7,500 तक का था.
2004 में किए गए सर्वे में जिन लोगों से सवाल पूछे गए थे उनमें से 60 फीसदी ने कहा था कि पिछले (2004 से पहले) पांच साल में उनके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरी है. उस समय उनमें से कइयों का मानना था कि अगले पांच साल में उनकी आर्थिक स्थिति और बेहतर होगी.
2009 में 72.4 फीसदी लोगों ने माना था कि चीजें सुधरी हैं.
2014 में ऐसा कहने वालों का आंकड़ा 76.5 फीसदी था. 2009 में 68.8 फीसदी लोगों को लग रहा था कि उनका आर्थिक भविष्य अच्छा रहेगा. 2014 में ये आंकड़ा 73 फीसदी था.
लेकिन 2023 में सिर्फ 38.8 फीसदी लोगों ने माना कि उनके परिवार की जिंदगी बेहतर हुई है. आधे से भी कम यानी 47 फीसदी ने ही माना कि अगले पांच साल में उनके लिए हालात सुधरेंगे.
इस बीच भविष्य के प्रति निराश लोगों का अनुपात बढ़ गया. 2004 में सिर्फ 2.3 फीसदी लोग भविष्य को लेकर निराश थे. लेकिन 2023 में ये अनुपात बढ़ कर 16 फीसदी हो गया.
सर्वे के तहत जो सैंपल किए गए थे वो पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
जिन लोगों से सवाल पूछे गए वो 20 से 60 साल की उम्र के बीच के थे. लेकिन अधिनायकवादी चीन में लोगों के अलग-अलग राय के बारे में पता करना मुश्किल होता है.
लेकिन लोगों से बातचीत के दौरान पता चला कि बेरोजगारी बढ़ रही है. करोड़ों कॉलेज ग्रेजुएट को कम आय वाली नौकरियां करनी पड़ रही हैं.
जबकि कुछ लोग काम के बोझ से दबे हैं और वो अब वो कुछ नहीं करना चाहते हैं. कुछ लोग 16-16 घंटे काम वाला कल्चर छोड़ कर अब अपने माता-पिता के साथ रह रहे हैं.
ऐसा वो दो वजहों से कर रहे हैं. या तो उन्हें नौकरियां नहीं मिल रही हैं या फिर काम के बोझ से बुरी तरह दब कर परेशान हो गए हैं.
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विश्लेषकों का मानना है कि चीन के कड़े कोविड प्रबंधन ने लोगों को नाउम्मीद करने में बड़ी भूमिका निभाई है
ली कुआन वेई स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी सिंगापुर के एसोसिएट प्रोफेसर अल्फ्रेड वु कहते हैं कि ये एक ‘टर्निंग प्वाइंट’ था. इसने लोगों को याद दिलाया कि शासन कितना अधिनायकवादी हो सकता है. इससे पहले लोग इतनी ज्यादा निगरानी में नहीं रहते थे.
उन्होंने कहा, ''कई लोग अवसाद के शिकार हो गए थे और बाद के दिनों में वेतन में कटौती की वजह से लोगों का आत्मविश्वास भी कम होता गया.''
38 साल के मोक्सी भी ऐसे लोगों में शामिल हैं. वो मनोचिकित्सक की अपनी नौकरी छोड़ कर दक्षिण पश्चिमी चीन के डाली शहर आ गए. ये शहर अब भारी दबाव वाली नौकरियां छोड़ कर यहां बस रहे युवाओं के लिए चर्चित हो गया है.
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''मैं खुद मनोचिकित्सक हूं लेकिन मेरे पास ये सोचने का वक़्त और समय नहीं था कि मेरी ज़िंदगी कहां जा रही है. उम्मीद और नाउम्मीदी के बारे में सोचने का वक़्त ही नहीं था. सिर्फ काम ही काम था.’’
सर्वे के मुताबिक़ लोगों के लिए अब ज्यादा से ज्यादा काम करना बेहतर भविष्य की गारंटी नहीं है.
2004, 2009 और 2014 में जिन लोगों से सवाल किए गए थे उनमें दस में से छह लोगों कहना था कि कोशिश करने से हमेशा आपकी बेहतरी होती है. उस समय सिर्फ 15 फीसदी लोग ही इससे इत्तेफाक़ नहीं रखते थे.
लेकिन 2023 आते ही लोगों की राय बदल गई. सिर्फ 28.3 फीसदी लोगों का मानना था कि मेहनत करने से बेहतरी होती है. सिर्फ एक तिहाई लोग इससे इत्तेफाक़ नहीं रखते थे.
ये असहमति सबसे ज्यादा कम आय वर्ग के लोगों में थी, जो साल में 50 हजार युआन यानी 6989 डॉलर से कम कमाते थे.
चीन में अक्सर लोगों से कहा जाता है कि वर्षों तक पढ़ाई कर डिग्री बटोरने के बाद आर्थिक भविष्य बेहतर बनेगा.
शायद ऐसा चीन के उथल-पुथल भरे इतिहास की वजह से है, क्योंकि यहां लोगों को भारी अकाल और युद्ध के दौर से गुजरना पड़ा है.
चीन के नेताओं ने भी इस तरह की कार्य संस्कृति को बढ़ावा दिया है.
मसलन शी जिनपिंग की चीनी सपना अमेरिकन ड्रीम की तरह है. जहां कड़ी मेहनत और प्रतिभा से अच्छा भविष्य बनता है.
वो अक्सर युवाओं को ‘कड़वे घूंट’ पीने के कहते हैं. चीन में अक्सर कड़ी मेहनत के लिए इस कहावत का इस्तेमाल किया जाता है.
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2023 में, व्हाइट और रोजे़ल की स्टडी में जिन लोगों से सवाल किए गए थे उनमें से ज्यादातर लोगों ने कहा जो लोग अमीर होते हैं, उनको उनके परिवार की अमीरी और संपर्कों का फायदा मिलता है.
एक दशक पहले लोगों ने अमीरी के लिए योग्यता, प्रतिभा,अच्छी शिक्षा और कड़ी मेहनत को ज़रूरी माना था.
ये शी जिनपिंग की चर्चित ‘साझा समृद्धि’ नीति के उलट है.
ये लोगों के बीच संपत्ति की असमानता को कम करने के लिए लाई गई थी. लेकिन आलोचकों कहना है इसका नतीजा ये हुआ कि सिर्फ कंपनियों और बड़े कारोबारों पर सख्ती की गई.
असंतोष के और भी कई संकेत हैं. चाइना डिसेंट मॉनिटर (सीडीएम) के मुताबिक़ 2024 की दूसरी तिमाही में प्रदर्शनों में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी.
सीडीएम के चार संपादकों में से एक केविन स्लेटन ने कहा कि चार में तीन प्रदर्शन आर्थिक असंतोष का नतीजा थे.
सीडीएम ने जून 2022 से ऐसे 6400 घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है.
उन्होंने पाया कि ये विरोध प्रदर्शन ग्रामीणों और श्रमिकों की ओर से हुए थे. जो जबरदस्ती जमीन अधिग्रहण या कम वेतन के सवाल पर किए गए थे.
रियल एस्टेट जैसे मुद्दों पर मध्य वर्ग के लोगों के भी संगठित होने के उदाहरण देखे गए. 370 से ज्यादा शहरो में इन प्रदर्शनों में शामिल 44 फीसदी लोग मकान मालिक और कंस्ट्रक्शन मजदूर थे.
हालांकि स्लेटन कहते हैं कि इसका अर्थ ये नहीं निकाला जाना चाहिए की चीन की अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने जा रही है.
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इस स्थिति से निश्चित तौर पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चिंतित हैं.
बेरोज़गारी के आंकड़ों के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच जाने के बाद चीन ने अगस्त 2023 से जनवरी 2024 के बीच युवाओं के बीच बेरोज़गारी के आंकड़ों को जारी करना बंद कर दिया.
एक समय तो अधिकारियों ने एक नए शब्द ‘धीमा रोजगार’ का इस्तेमाल करना शुरू किया. ये शब्द उन लोगों के इस्तेमाल किया गया जिन्हें नौकरी पाने में देरी हो रही थी. अधिकारियों का कहना था कि ये बेरोजगारों से अलग श्रेणी है.
आर्थिक हताशा जाहिर करने वाले हर स्रोत को सेंसर किया गया. जब ऑनलाइन पोस्ट बेरोज़गारी की बात करते थे तो उन्हें तुरंत मिटा दिया जाता था.
लग्जरी चीजों के बारे में बताने वाले इन्फ्लुएंसर्स सोशल मीडिया पर ब्लॉक कर दिए गए. सरकारी मीडिया ने इन प्रतिबंधों का ये कह कर बचाव किया कि ये एक सभ्य, स्वस्थ और एकता का माहौल बनाने की कोशिश है.
ऐसे मामलों में ज्यादा चिंता पैदा करने वाली ख़बर पिछले सप्ताह आई, जब अर्थव्यवस्था को ठीक करने के शी जिनपिंग की नीतियों की आलोचना करने वाले अर्थशास्त्री झु हेंगपेंग को हिरासत में ले लिया गया.
स्लेटन का कहना है कि कम्युनिस्ट पार्टी लोगों के पास मौजूद नकारात्मक समझी जाने वाली (सरकार की नजर में ) सूचनाओं को अलग स्वरूप देकर नैरेटिव को कंट्रोल करना चाहती है.
सीडीएम की रिसर्च बताती है कि सरकार के नियंत्रण के बावजूद लोगों के असंतोष से विरोध बढ़ रहा है और चीन के लिए चिंता पैदा करने वाली बात होगी.
नवंबर 2022 के दौरान कड़े कोविड प्रतिबंधों की वजह से लोगों को घरों से निकलने की इज़ाज़त नहीं दी गई थी.
इस दौरान एक भीषण अग्निकांड में इमारत से ना निकल पाने की वजह से कम से कम दस लोगों की मौत हो गई थी. इस घटना के बाद चीन के कई इलाकों में हजारों लोगों सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था और जीरो-कोविड पॉलिसी वापस लेने की मांग की थी.
हालांकि व्हाइट और रोज़ेल को नहीं लगता कि उनके अध्ययन में बढ़ती असमानता के प्रति जो जनाक्रोश जाहिर हुआ, वह विरोध की ज्वालामुखी के तौर पर फूटेगा.
EPA रिसर्च में क्या कहा गयादोनों लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था में गिरावट ने कम्युनिस्ट पार्टी की वैधता को ‘कमजोर’ करना शुरू कर दिया है. उस वैधता को जो उसने दशकों को निरंतर आर्थिक विकास और लोगों के बेहतर जीवन स्तर मुहैया करा कर हासिल की थी.
मिशिगन यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफे़सर युन झाऊ ने कहा कि कोविड महामारी के दौरान सख्त नियमों की याद अब भी लोगों को डराती है.
उस दौरान चीन के कड़े और अस्थिर कदमों ने भविष्य के प्रति लोगों की असुरक्षा को बढ़ावा ही दिया है.
और ये ज्यादा हाशिये पर रह रहे लोगों में दिख रहा है. वो कहती हैं कि महिलाओं को श्रम बाजार में काफी ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है.
ग्रामीण इलाकों के लोगों पर भी इसका असर दिख रहा है जो लंबे समय से सरकार के कल्याणकारी योजनाओं से बाहर हैं.
चीन में परिवारों के रजिस्ट्रेशन के विवादित सिस्टम के तहत शहर में बाहर से आने वाले श्रमिकों को वहां की सार्वजनिक सेवाओं के इस्तेमाल की अनुमति नहीं है. जैसे वो सरकारी स्कूलों अपने बच्चों का दाखिला नहीं करा सकते.
लेकिन मोक्सी जैसे शहरी लोग अब दूर-दराज के शहरों में पहुंच रहे हैं. क्योंकि वहां किराया सस्ता है. मौसम और जगहें ख़ूबसूरत हैं. और अपने सपनों के पीछे भागने के लिए ज्यादा आजादी भी .
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व्हाइट, रोज़ेल और एलेस्की की रिसर्च 2004 और 2023 के बीच के ए़केडेमिक सर्वे के चार सेटों पर आधारित है.
2004, 2009 और 2014 में पेकिंग यूनिवर्सिटी के रिसर्च सेंटर ऑन कंटेम्पररी चाइना (आरसीसीसी) के सहयोगियों के साथ मिलकर लोगों से सवाल पूछे गए थे. इन लोगों की उम्र 17 से 80 वर्ष के बीच थी. ये लोग 29 प्रांतों के थे. तिब्बत और जिनजियांग के लोग इसमें शामिल थे.
2023 की दूसरी, तीसरी और चौथी तिमाही में चीन के चेंग्दू साउथवेस्टर्न यूनिवर्सिटी ऑफ फाइनेंस एंड इकोनॉमी के सर्वे एंड रिसर्च सेंटर फॉर चाइना हाउसहोल्ड फाइनेंस (सीएचएफएस) की ओर से तीन ऑनलाइन सर्वे कराए गए थे.
इसमें भाग लेने वाले 20 से 60 साल के बीच के थे.
सभी सर्वे में समान सवाल पूछे गए थे. सभी चार वर्षों के सर्वे के दौरान मिले जवाबों की तुलना के लिए 18 से 19 वर्ष और 61 से 70 वर्ष के लोगों के जवाब को हटा दिया.
सभी जवाबों को रीवेट किया ताकि ये पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सकें. इस स्टडी को ने चाइना जर्नल ने छापने के लिए मंजूर कर लिया. इसके 2025 में प्रकाशित होने की संभावना है.
चाइना डिसेंट मॉनिटर (सीडीएम) के रिसर्चरों ने पूरे चीन में असहमतियों की घटनाओं का डेटा जून 2022 से इकट्ठा करना शुरू किया था. इनके स्रोत गैर सरकारी जैसे समाचारपत्रों की रिपोर्टें, देश में चलने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और सिविल सोसाइटी संगठनों से मिलने वाले आंकड़े थे.
असहमति की घटनाओं से मतलब व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की ओर असहमति जताने के लिए सार्वजनिक और गैर-आधिकारिक साधनों का उपयोग करते हैं.
ऐसी घटना दिखती है और अक्सर लोगों के शारीरिक दमन या सेंसरशिप के जरिये इन्हें दबाने की कोशिश होती है.
इनमें वायरल होने वाले सोशल मीडिया पोस्ट, प्रदर्शन, बैनर ड्रॉप और हड़ताल आदि को शामिल किया जा सकता है. कई घटनाओं की स्वतंत्र रूप से पुष्टि करना मुश्किल होता है.
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बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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