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जेल मैनुअल में शौचालय साफ़ करने के लिए मजबूर करना जातिगत भेदभाव: सुप्रीम कोर्ट

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Getty Images सुप्रीम कोर्ट में पत्रकार सुकन्या शांता ने जेल मैनुअल को लेकर याचिका दाख़िल की थी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 11 राज्यों के जेल मैनुअल के कई प्रावधान जाति के आधार पर भेदभाव करते हैं.

पत्रकार सुकन्या शांता की याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मौजूदा जेल मैनुअल मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ थे और जातिगत भेदभाव करते थे.

सुकन्या ने अपनी एक रिपोर्ट में पता लगाया था कि कई राज्यों के जेल मैनुअल जाति के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल अपनी याचिका में उन्होंने कहा था कि जाति के आधार पर जेल के अंदर काम बाँटे जाते हैं. साथ ही क़ैदी जिस बैरक में रहते हैं, उसे भी जाति के आधार पर तय किया जाता है.

अब सुप्रीम कोर्ट ने इन प्रावधानों को ख़ारिज कर दिया है.

साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि तीन महीने के भीतर जेल मैनुअल को अपडेट किया जाए और इन भेदभाव वाले प्रावधानों को हटाया जाए.

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जेल मैनुअल image Getty Images याचिका में कहा गया था कि जेल मैनुअल के कई प्रावधान ब्रितानी शासन के ज़माने से हैं

क़ैदी जेल में कैसे रहेंगे या क्या काम करेंगे, ऐसी कई चीज़ों को तय करने के लिए जेल मैनुअल का इस्तेमाल किया जाता है.

कई राज्यों में ऐसी नीति थी कि जेल में सफ़ाई का काम ऐसे लोग करेंगे जिन्हें 'निचली जाति' का माना जाता है.

ऐसे ही खाना बनाने का काम वो लोग करेंगे, जिन्हें 'ऊँची जाति' का माना जाता है.

जेल मैनुअल में कुछ जनजातियों के लोगों को 'आदतन अपराधी' भी माना गया था.

याचिका में तर्क

पत्रकार सुकन्या शांता ने अपनी याचिका में ये तर्क भी दिया था कि कई जेलों में 'डी-नोटिफाइड ट्राइब्स' (जिन्हें ब्रिटिश शासन के समय बनाए गए क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के तहत क्रिमिनल ट्राइब्स घोषित किया गया था) से आने वाले क़ैदियों से भेदभाव किया जाता है.

कई जेलों में इन जनजातियों के लोगों को 'आदतन अपराधी' घोषित कर दिया जाता है, भले ही वो पहली बार दोषी ठहराए गए हों.

'आदतन अपराधी' घोषित होने वाले क़ैदियों को कड़ी सुरक्षा में रखा जाता है.

जेल में होने वाले भेदभाव के उदाहरण की बात करें तो पश्चिम बंगाल के जेल मैनुअल में लिखा है कि सफ़ाई करने वाले 'मेहतर, हाड़ी या चांडाल' जाति के क़ैदी होने चाहिए, या कोई ऐसी जाति के क़ैदी जो आम तौर पर ये काम करते हों.

इसके अलावा, मैनुअल में ये भी लिखा है कि अगर कोई क़ैदी 'ऊँची जाति' का है और उन्हें किसी के खाना बनाने से आपत्ति है, तो उसके लिए एक नया बावर्ची रखा जाएगा.

मध्य प्रदेश के जेल मैनुअल में लिखा था कि जेल में सफ़ाई का काम 'मेहतर' लोग करेंगे.

इस तरह के प्रावधान 11 राज्यों में थे, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी.

ये राज्य हैं- कर्नाटक, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश.

याचिका में सुकन्या शांता ने कहा था कि ऐसे प्रावधान अंग्रेजों के ज़माने से थे. उन्होंने ये भी सवाल उठाए थे कि ब्रितानी शासन के समय से चले आ रहे ऐसे प्रावधान आज़ाद भारत में क्यों जारी रहे.

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला image Getty Images सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि ये स्पष्ट है कि जेलों में जाति के वर्गीकरण को आधार बनाया गया था

अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि ये स्पष्ट है कि जेलों में जाति के वर्गीकरण को आधार बनाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा,"ब्रिटिश शासन के दौरान बनाया गया क़ानून जाति के आधार पर भेदभाव करता है. आज़ादी के 75 साल बाद भी, हम जात-पात को हटा नहीं पाए हैं. हमें न्याय और समानता का एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण चाहिए जिसमें सारे नागरिक हिस्सेदार हों."

कोर्ट ने कहा कि जाति के आधार पर प्रावधान बनाए जा सकते हैं, लेकिन जब वो किसी की सुरक्षा के लिए बने हों, लेकिन भेदभाव के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि जेल मैनुअल इस सोच को बढ़ावा देते हैं कि कुछ समुदाय के लोग कुशल या सम्मानित काम करने के योग्य नहीं हैं.

याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे प्रावधान, जिनमें 'ऊँची जाति' का व्यक्ति 'निचली जाति' के व्यक्ति के बनाए खाने को खाने से मना कर सकता है, ऐसे प्रावधान अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था को क़ानूनी मान्यता देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक तरह से जबरन मज़दूरी कराने जैसा माना है.

कोर्ट ने कहा, "वंचित जातियों के क़ैदियों को शौचालय साफ़ करने या झाड़ू-पोछा लगाने जैसे काम के लिए मजबूर करना, वो भी बिना उनकी पसंद का ध्यान रखे, केवल उनकी जाति के आधार पर, ये एक प्रकार की ज़बरदस्ती को दिखाता है."

आख़िर में कोर्ट ने ये आदेश दिए:
  • इन 11 राज्यों के जेल मैनुअल के भेदभाव करने वाले प्रावधान असंवैधानिक हैं.
  • केंद्र सरकार को तीन महीने के अंदर जातीय भेदभाव वाले प्रावधानों को बदलना होगा.
  • दोषियों और विचाराधीन क़ैदियों दोनों के लिए, जेल के रजिस्टर में कहीं भी जाति का ज़िक्र नहीं होगा.
  • 'आदतन अपराधी' की परिभाषा सिर्फ़ क़ानून के मुताबिक़ होगी.
  • पुलिस को ये ध्यान में रखना होगा कि 'डी-नोटिफाइड ट्राइब्स' को बिना किसी वजह के गिरफ़्तार ना किया जाए.
  • कोर्ट ने नया केस भी दर्ज किया है, जिसमें वो ये निगरानी रखेंगे कि जाति, लिंग और विकलांगता के आधार पर कोई भेदभाव ना हो. इसकी सुनवाई अब तीन महीने बाद होगी.
  • 'डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी’ और जेल के ‘बोर्ड ऑफ़ विजिटर’ को समय-समय पर निरीक्षण करना होगा कि भेदभाव जारी ना रहे.
  • सारे राज्यों को इस आदेश की कॉपी तीन हफ़्ते के भीतर केंद्र सरकार को भेजनी होगी.
  • बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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