जस्टिस संजीव खन्ना भारत के 51वें चीफ़ जस्टिस बने हैं. उन्होंने 11 नवंबर को चीफ़ जस्टिस के तौर पर शपथ ली है.
उनका कार्यकाल छह महीने एक दिन का होगा. अगले साल ही 13 मार्च को जस्टिस खन्ना रिटायर हो जाएंगे.
हालांकि उनका कार्यकाल छोटा है लेकिन इस बात में लोगों की ख़ास दिलचस्पी है कि जस्टिस खन्ना का कार्यकाल, उनमें संभावना, उनके न्यायिक फ़ैसले और भारत के न्यायिक तंत्र में निहित सीमाओं के संदर्भ में कैसा रहेगा.
ग़ौरतलब है कि भारत में छोटे कार्यकाल वाले मुख्य न्यायाधीशों का जो इतिहास रहा है, उसने अभी तक यही दिखाया है कि अगर वो कोशिश करें तो सुधार की ऐसी दिशा तय कर सकते हैं, जिसका अनुसरण उनके बाद आने वाले जस्टिस भी कर सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक ग़लतियों और ख़ामियों से बचने में सीजेआई की मुख्य भूमिका होती है. दोनों स्तरों पर प्रशासकीय मुखिया के तौर पर भी और न्यायिक परिवार के मुखिया के रूप में भी.
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हालांकि केवल लंबित मुक़दमों की संख्या ही अकेला मुद्दा नहीं है, जिससे नए सीजेआई को चिंतित होना चाहिए.
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के कॉलेजियम ने जस्टिस खन्ना की नियुक्ति की सिफ़ारिश की थी, तब वो दिल्ली हाई कोर्ट के जज हुआ करते थे.
उस समय 32 अन्य हाई कोर्ट जजों की वरिष्ठता (हाई कोर्ट जज के रूप में नियुक्त की तारीख़ के संदर्भ में) को नज़रअंदाज़ कर जस्टिस खन्ना का नाम आगे बढ़ाया गया था.
पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कॉलेजियम ने जस्टिस खन्ना के नाम की सिफ़ारिश इसलिए की थी क्योंकि विचार करने योग्य दूसरे नामों के मुक़ाबले जस्टिस खन्ना का सीजेआई के तौर पर कार्यकाल महज़ छह महीने का होगा.
तथ्य ये है कि कॉलेजियम सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर किसी नाम को, उसकी योग्यता और ईमानदारी की बजाय उसके संभावित कार्यकाल के अंतराल आधार पर सिफ़ारिश करे, यह कुछ अजीब लग सकता है.
लेकिन भारत में हाल के समय में कम कार्यकाल वाले कई मुख्य न्यायाधीशों के इतिहास को देखते हुए यह एक अतिरिक्त कारक बन जाता है, ख़ासकर तब जब कई उम्मीदवार योग्यता के मानदंड पूरा कर रहे हों.
तथ्य ये भी है कि जस्टिस खन्ना दिल्ली हाई कोर्ट से आते हैं और पिछले 20 सालों से इस हाई कोर्ट का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई जज सीजेआई नहीं बना था.
रिटायर्ड जज गोगोई के हवाले से, यह भी उनके पक्ष में गया.
जस्टिस खन्ना को 2005 में एडीशनल हाई कोर्ट जज के रूप में नियुक्त किया गया और फ़रवरी 2006 में वो परमानेंट जज बन गए.
परमानेंट जज बनने से पहले वकालत में उनका अनुभव 23 साल का रहा था.
इसके अलावा उन्होंने टैक्स मामलों, मध्यस्थता, कंपनी लॉ, भूमि अधिग्रहण, स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों के ट्राइब्यूनल में भी काम किया.
हाई कोर्ट जज के तौर पर पदोन्नति से पहले वो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के स्टैंडिंग काउंसिल और बाद में दिल्ली के नेशनल कैपिटल टेरिटरी के स्टैंडिंग काउंसिल में थे.
अक्सर सार्वजनिक रूप से बोलने और सार्वजनिक कार्यक्रमों में राजनेताओं से साथ दिखने की कामकाज़ी ज़रूरतों के बावजूद, उनके सार्वजनिक रिकॉर्ड को देखते हुए, कमोबेश उनकी एकांतप्रिय छवि रही है.
हाल के सालों में सीजेआई कार्यालय, 'मास्टर ऑफ़ दि रोस्टर' की दोहरी भूमिका के चलते लगातार सार्वजनिक पड़ताल के दायरे में आता गया है.
'मास्टर ऑफ़ दि रोस्टर' के रूप में प्रत्येक सीजेआई, सुप्रीम कोर्ट में जजों के रोस्टर को निर्धारित करते हैं.
हालांकि मुक़दमों को, जजों की उपलब्धता और उनकी वरिष्ठता के आधार पर कम्प्यूटर द्वारा नियमित रूप से रोस्टर के मुताबिक़ अलग अलग जजों को आवंटित किया जाता है.
लेकिन समय-समय पर 'मास्टर ऑफ़ दि रोस्टर' मुक़दमों की लिस्टिंग में बदलाव करता है.
यह अक्सर इस आलोचना को जन्म देता है कि 'मास्टर ऑफ़ दि रोस्टर' की शक्तियां मनमानी हैं और किसी मामले में सरकार के पक्ष में नतीजे लाने के लिए, मुक़दमे की सुनवाई को सुनिश्चित करने में इसके दुरुपयोग की संभावना है.
चाहे यह किसी राजनीतिक बंदी की ज़मानत पर सुनवाई हो या किसी विधायिका या कार्यकालिका के निर्णयों को चुनौती देना हो, कुछ ख़ास मान्यताएं और रुझान रखने वाले कुछ ख़ास जजों के सामने सुनवाई के लिए मुक़दमे की लिस्टिंग करने से पक्षपाती नतीजे आने की संभवना होती है और इस कारण यह आलोचना के घेरे में आ चुका है.
जस्टिस खन्ना उस फ़ैसले के लेखक थे, जिसमें कहा गया था कि 'न्यायिक स्वतंत्रता, पारदर्शिता की ज़रूरत का विरोधाभासी नहीं है.'
प्रेक्षकों ने पूछा है कि इसलिए क्या जस्टिस खन्ना वही करेंगे, जो वो कहते हैं और मास्टर ऑफ़ दि रोस्टर के रूप में अपनी शक्तियों के इस्तेमाल में और सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली में अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करेंगे?
सीजेआई की अध्यक्षता वाला सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम एक दूसरा निकाय है, जिसकी कार्यप्रणाली गोपनीय बनी हुई है, जबकि कई प्रधान न्यायाधीशों ने इसे अधिक पारदर्शी बनाने की कोशिशें कीं.
विभिन्न उच्य न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के प्रस्तावों पर सरकार के साथ चल रही रस्साकशी में कॉलेजियम को कार्यपालिका के सामने झुकते देखा जाता है.
हालांकि क़ानूनन, कॉलेजियम की सिफ़ारिश अगर दुहराई गई हो तो सरकार के लिए बाध्यकारी होती है.
क्या जस्टिस खन्ना इस ट्रेंड से कोई बिल्कुल अलग रास्ता अख़्तियार करेंगे?
चूंकि इस पद पर आने वाले अधिकांश मुख्य न्यायाधीश इसे एक प्रशासकीय मुद्दे के रूप में देखना पसंद करते हैं, इसलिए सरकार को न्यायिक रूप से अनुशासित करने की किसी भी कोशिश, सफल होने की संभावना कम ही है क्योंकि इससे कॉलेजियम के प्रस्तावित नामों की नियुक्तियों और ट्रांसफ़र में देरी होती है.
जस्टिस खन्ना ने कुछ ऐतिहासिक फ़ैसले दिए हैं, जिससे उनके न्यायिक फ़लसफ़े का अंदाज़ा लगता है, जिसे कई जानकार सरकार समर्थक होने के रूप में देख सकते हैं.
उन्होंने ईवीएम में डाले गए 100% वोटों का वोटर वेरिफ़ाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) के साथ मिलान करने की मांग वाली याचिका ख़ारिज कर दी थी.
मौजूदा समय में वीवीपैट से सत्यापन, किसी चुनावी क्षेत्र में बेतरतीबी से चुने गए पांच मतदान केंद्रों में ही किया जाता है.
जस्टिस खन्ना की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सबसे पहले लोकसभा चुनाव में प्रचार के लिए ज़मानत दी थी और बीते जुलाई में इस आधार पर उन्हें नियमित ज़मानत दी कि वो 90 दिनों तक जेल में रह चुके थे.
ज़मानत देने के बाद अदालत ने मुख्यमंत्री के तौर पर काम करने की उनकी सीमाएं निर्धारित की थीं जिसके बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था.
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द करने को बरक़रार रखने पर सहमति दी थी, जिसके तहत तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष राज्य का दर्जा हासिल था.
उन्होंने दलील दी कि विशेष दर्जे को रद्द किया जाना, संघीय ढांचे का उल्लंघन नहीं है क्योंकि जम्मू और कश्मीर में रहने वाले नागरिकों को वही दर्जा और अधिकार प्राप्त होगा जो देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले नागरिकों को हासिल हैं.
उन्होंने अपने साथी जजों सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल के साथ, सरकार के इस बयान को रिकॉर्ड पर लेने की सहमति दी थी कि वह जम्मू और कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश के राज्य का दर्जा बहाल करेगी. लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के फैसले को बरक़रार रखा.
लेकिन अपने अलग फ़ैसले में उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि किसी राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के गंभीर परिणाम होते हैं और इसका संघीय ढांचे पर असर होता है.
उन्होंने कहा कि केंद्र शासित प्रदेश बनाने को जायज ठहराने के लिए मज़बूत और ठोस आधार की ज़रूरत थी और इसमें संविधान के अनुच्छेद तीन का कड़ाई से अनुपालन होना चाहिए. उन्होंने ये नहीं कहा कि क्या सरकार इन शर्तों को पूरा कर रही थी?
वो पांच जजों की उस बेंच का हिस्सा भी थे, जिसने अपने फ़ैसले में यह कहते हुए केंद्र सरकार के इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक क़रार दिया था कि 'दानदाताओं को निजता का अधिकार नहीं है.'
जस्टिस खन्ना विवादों से परे नहीं हैं.
तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की उस बेंच का वह हिस्सा थे, जिसने सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी द्वारा गोगोई के ख़िलाफ़ लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों को ख़ारिज करने के लिए शनिवार (20 अप्रैल, 2019) को सुनवाई की थी.
इस बेंच में जस्टिस गोगोई और जस्टिस अरुण मिश्रा के अलावा जस्टिस खन्ना की मौजूदगी ने प्रेक्षकों को भी हैरानी में डाला दिया था क्योंकि बेंच ने मीडिया को आरोपों की रिपोर्टिंग करने से रोकने का निर्देश दिया था, जबकि इस सुनवाई ने अपने आप में गोगोई के हितों के टकराव को उजागर कर दिया था.
हालांकि बेंच के फ़ैसले में गोगोई को बाहर रखा गया था.
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की आंतरिक जांच में गोगोई को क्लीन चिट दे दी गई और इस रिपोर्ट को गोपनीय रख लिया गया.
जस्टिस खन्ना की पदोन्नति की सिफ़ारिश, तत्कालीन सीजेआई गोगोई की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ करने की आलोचना को दरकिनार करके किया था.
अपने कार्यकाल के समाप्त होने पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने जस्टिस खन्ना की, उनके उच्च निष्पक्षता और शांत रहने की क्षमता और कोर्ट की गर्मागरम बहसों के बीच मुस्कुराते रहने और साथ ही सीजेआई कार्यालय में समृद्ध अनुभव जोड़ने के लिए सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की है.
व्यक्तिगत रूप से जस्टिस खन्ना को, अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर जजों के परिवार से आने के नाते काफ़ी सम्मान हासिल है.
वह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस हंस राज खन्ना के भतीजे हैं, जिन्होंने इमरजेंसी के दौरान हैबियस कॉर्पस के मामले में अकेली असहमति जताई थी और कहा था कि 'बिना उचित प्रक्रिया के नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता.'
बाद में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने अगले सीजेआई के चुनाव में उनकी वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर दिया था. जस्टिस एचआर खन्ना ने इसके बाद इस्तीफ़ा दे दिया लेकिन कोर्ट के इतिहास में एक अमिट जगह बना ली.
ये देखने वाली बात होगी क्या जस्टिस संजीव खन्ना, अपने चाचा के गौरवशाली योगदान के प्रति सचेत रहते हुए, कोई लक्ष्मण रेखा लांघते हैं या नहीं, ख़ासतौर पर जनहित के मामलों में, जहां अक्सर कार्यपालिका और न्यायपालिका की रेखाएं धुंधली पड़ जाती हैं.
उनके लिए, जब तक बुनियादी अधिकारों या संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का आरोप नहीं लगाया जाता और साबित नहीं होता, तब तक न्यायिक समीक्षा की कोई गुंजाइश नहीं है.
जस्टिस संजीव खन्ना के कार्यकाल को कुछ लंबित बड़े मामलों को हल करने में उनकी क्षमता के लिए, बारीक़ी से देखा जाएगा जैसे एलजीबीटीक्यू समुदाय के विवाह के अधिकार को ख़ारिज करने वाले आदेश की समीक्षा, वैवाहिक बलात्कार मामला, दांपत्य अधिकारों की बहाली की वैधता, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम आदि.
सालों तक जेल में बंद राजनीतिक बंदियों को, उनके कार्यकाल के दौरान समय से राहत मिलती है या नहीं, यह भी सीजेआई के तौर पर उनकी सफलता की एक और परीक्षा होगी.
(वी. वेंकटेसन एक वरिष्ठ क़ानूनी मामलों के पत्रकार हैं जिनके लेख भारत के शीर्ष प्रकाशनों पर नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं.)
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