कर्नाटक वक़्फ़ बोर्ड से जुड़ा विवाद ऐसे समय तूल पकड़ रहा है, जब बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को इसका फ़ायदा हाल ही में होने वाले चुनावों में मिल सकता है. साथ ही इसके बाद बीजेपी देश में वक़्फ़ क़ानून में संशोधन की मांग को मज़बूती से आगे बढ़ा सकती है.
दरअसल, इस विवाद ने देश के कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और उपचुनाव में एनडीए के प्रचार अभियान को नया रंग दे दिया है.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह महाराष्ट्र और झारखंड में अपने भाषणों में वक़्फ़ बोर्ड को ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाला बता चुके हैं.
यह भी आशंकाएं हैं कि वह ऐसा करके अपनी पार्टी के सदस्यों की मदद कर रहे हैं, ताकि युनाइटेड वक़्फ़ मैनेजमेंट, एम्पॉवरमेंट, एफ़िशियंसी एंड डेवलपमेंट बिल के जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति के सामने जाने से पहले उस बिल में कुछ तयशुदा संशोधन किए जा सकें.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिएजेपीसी के चेयरमैन जगदम्बिका पाल ने बीबीसी को बताया, “जब ढाई महीने पहले यह बिल पेश किया गया था, तब से लेकर अब तक किसानों को भेजे गए नोटिसों में 38 फ़ीसदी की वृद्धि देखी गई है.”
इन नोटिसों में यह दावा किया गया था कि किसान कर्नाटक में वक़्फ़ की ज़मीन पर कब्ज़ा कर रहे हैं.
हालांकि, कुछ कांग्रेस नेता नाम न छापे जाने की शर्त पर इस पूरे घटनाक्रम का ज़िम्मेदार कर्नाटक सरकार के वक़्फ़ मंत्री ज़मीर अहमद ख़ान की ‘अपरिपक्वता’ को बताते हैं, जो इस पूरे विवाद का केंद्र बताए जा रहे हैं.
इस मामले में एक राजनीतिक विश्लेषक और मैसूर विश्वविद्यालय के पूर्व डीन प्रोफ़ेसर मुज़फ़्फ़र असदी ने बीबीसी से कहा, “अगर इस तरह की बातें गढ़ दी जाती हैं, तो इसमें वो बातें भी शामिल हैं, जो ज़मीनी स्तर पर सामाजिक सौहार्द को कम करने की वजह बन सकती है.”
मूल रूप से, राजनीतिक गलियारों में यह धारणा है कि कर्नाटक वक़्फ़ विवाद बीजेपी के वक़्फ़ संशोधन बिल वाले मामले में मददगार साबित होगा. इसमें वो बीजेपी के रुख़ को ही आगे बढ़ाएगा, जिसमें बीजेपी वक़्फ़ के प्रशासन का ज़िम्मा ज़िला कलेक्टर और डिप्टी कमिश्नर के पास रहने की बात कहती है.
जेपीसी में शामिल विपक्ष के एक सदस्य बीजेपी के इस कदम को लेकर कहते हैं कि अगर ऐसा होता है तो वक़्फ़ बोर्ड ‘बिना दांत वाला शेर’ बन जाएगा. मतलब, उसके पास कोई ताकत नहीं होगी.
ये भी पढ़ें-कुछ सप्ताह पहले, किसानों के एक छोटे समूह ने उनको मिले नोटिसों को लेकर नाराज़गी ज़ाहिर की थी. इन नोटिसों में यह दावा किया गया कि किसानों ने गांव में वक़्फ़ बोर्ड की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है. यह गांव ज़िला मुख्यालय विजयपुरा से पांच किलोमीटर की दूरी पर है.
इस मामले में तनातनी तब और बढ़ गई, जब कुछ ग्रामीणों को मिले नोटिस में सर्वे नंबर 1020 की जगह सर्वे नंबर 1029 बताया गया था. वैसे यह ग़लती क्लर्क के स्तर पर हुई थी, मगर यह गंभीर ग़लती थी. क्योंकि 1029 नंबर ज़मीन लिंगायत मठ के नाम थी.
वक़्फ़ के दावों को लेकर किसानों की चिंता ने अफवाहों को और बढ़ा दिया. इस बीच, कर्नाटक विधानसभा के लिए होने वाले उपचुनाव के लिए चुनाव अभियान शुरू ही हुआ था. ऐसे में बीजेपी को इसे मुद्दा बनाने का मौक़ा मिल गया.
विजयपुरा ज़िले के इंचार्ज मंत्री एमबी पाटिल ने संवाददाताओं से कहा कि ये नोटिस बीजेपी के शासनकाल में साल 2019 से साल 2022 के बीच जारी किए गए थे. उन्होंने कलबुर्गी और अन्य ज़िलों के किसानों को भेजे गए नोटिसों की कॉपी भी जारी की थी.
ANI कर्नाटक के मंत्री ज़मीर अहमद ख़ान (बाएं से सबसे पहले) सालों बाद ज़मीन वापस लेने की ज़रूरत क्या है?एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बीबीसी हिंदी से कहा, “ये नोटिस अंधाधुंध तरीके से नहीं जारी किए गए थे. वक़्फ़ की ज़मीन को वापस लिए जाने की प्रक्रिया बहुत तेज़ी से शुरू की गई थी. पहला सर्वे साल 1962 में किया गया था, जो साल 1978 में पूरा हुआ था. दूसरा सर्वे साल 2003 में शुरू होकर साल 2014 में ख़त्म हुआ था. और यह सर्वे साल 2020 में पूरा हो पाया था.”
यह साल 2020 की बात है, जब फाइनल नोटिफ़िकेशन जारी होने के बाद वक़्फ़ बोर्ड को यह पता लगा था कि कर्नाटक में उसके पास 1.10 लाख एकड़ ज़मीन है. आने वाले तीन वर्षों में इस ज़मीन में 2200 एकड़ ज़मीन और जुड़ गई थी. हालांकि, 1974 में इनाम एबोलिशन एक्ट को ख़त्म करने के बाद वक़्फ़ बोर्ड को 71 हज़ार एकड़ ज़मीन से हाथ धोना पड़ा था. और लैंड रिफ़ॉर्म्स एक्ट के आने के बाद और 3 हज़ार एकड़ ज़मीन से हाथ धोना पड़ा था.
अधिकारी ने कहा, “वक़्फ़ बोर्ड के पास 37 हज़ार एकड़ ज़मीन बची थी, जिसमें से 20 हज़ार एकड़ ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड के पास है. कुल ज़मीन में से बची 17 हज़ार एकड़ ज़मीन को लेकर अभी भी मुथवल्लियों के साथ विवाद की स्थिति बनी हुई है. मुथवल्ली वक़्फ़ की ज़मीन की देखभाल करते हैं.”
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी हिंदी से नाम न बताए जाने की शर्त पर कहा, “पिछले कुछ सालों में ज़मीन का मालिकाना हक़ कई बार बदला जा चुका है. वक़्फ़ को जो ज़मीन मुस्लिम परिवार ने दी, वो या तो अतिक्रमण में जा चुकी थी या फिर किसी असामाजिक तत्व ने उसे बेच दी थी. नोटिस जारी किए. काग़ज़ पेश किए जाने के बाद लोगों को वहां रहने के लिए कहा गया.”
मगर, कुछ अधिकारियों के साथ-साथ कुछ कांग्रेस के नेताओं ने भी नाम न बताए जाने की शर्त पर बीबीसी से इस बात की पुष्टि की कि इस मामले के तूल पकड़ने की वजह वक़्फ़ मंत्री ज़मीर अहमद ख़ान का वो अभियान है, जिसमें वो दो मुथवल्लियों को स्टेट वक़्फ़ काउंसिल के पास लेकर चले गए थे.
नाम न छापे जाने की शर्त पर एक कैबिनेट मंत्री ने बीबीसी हिंदी से कहा, “सबसे पहले तो, यह थोड़ी अजीब बात थी कि एक छोटे से पद के लिए एक मंत्री उम्मीदवार उतारे और प्रचार भी करे. दूसरा, उन्होंने भावनात्मक भाषण दिया, कि वक़्फ़ अदालत की वसीयत वक़्फ़ की संपत्ति को प्रमाणित करती है, जो कि पूरी तरह से मौजूदा नियम के ख़िलाफ़ था. क्योंकि, यह शक्ति केवल वक़्फ़ ट्रिब्यूनल के पास है, न कि मंत्री के पास. इस बीच, उन्होंने अधिकारियों से कह दिया कि सभी को नोटिस जारी किए जाएं.”
तीन विधानसभाओं में होने वाले उपचुनावों के दौरान उनके भाषणों का यह वीडियो वायरल हो गया. इससे मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर दबाव पड़ा कि किसानों को जारी किए गए नोटिसों को तत्काल रद्द किया जाए.
हालांकि, ज़मीर अहमद ख़ान ने तीन दिनों तक बीबीसी के सवालों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. उनकी प्रतिक्रिया दिए जाने के बाद इसे रिपोर्ट में अपडेट कर दिया जाएगा.
इस बीच, बीजेपी ने मज़बूत ढंग से अभियान शुरू किया. बेंगलुरु दक्षिण के सांसद तेजस्वी सूर्या ने यह ट्वीट तक कर दिया था कि नोटिस मिलने के बाद एक किसान ने आत्महत्या कर ली.
हालांकि, बाद में जल्द ही उन्होंने इस ट्वीट को डिलीट भी कर दिया. इसकी वजह ज़िले के पुलिस अधिकारी का वो बयान था, जिसमें कहा गया था कि किसान के मरने की वजह कुछ और थी.
(इस मामले में तेजस्वी सूर्या के ख़िलाफ़ एफ़आईआर भी दर्ज की गई थी. उन्हें इस मामले से जुड़ी जांच के मामले में हाई कोर्ट से स्टे मिल गया था.)
जेपीसी चेयरमैन कार्रवाई से हैरान ANI जेपीसी चेयरमैन जगदम्बिका पाल ने बीबीसी से कहा कि 'मैं सैकड़ों किसानों से मिला'वक़्फ़ बिल मामले में जेपीसी चेयरमैन जगदम्बिका पाल किसानों से मिले. उन्होंने हुबली, विजयपुरा और बेलगावी के किसानों से भी मुलाक़ात की.
पाल ने बीबीसी से कहा, “मैं सैकड़ों किसानों से मिला और मुझे धार्मिक संस्थानों के प्रतिनिधियों से याचिकाएं भी मिलीं. वे सभी लोग सैकड़ों वर्षों से अपनी ज़मीन पर खेती करते आ रहे थे.”
उन्होंने बताया कि ऐसी ही स्थिति उनको ओडिशा में मिली थी, जहां स्थानीय वक़्फ़ बोर्ड ने आदिवासियों को उनके जंगल और ज़मीन से निकाल बाहर किया था.
उन्होंने कहा, “जंगल की ज़मीन तो किसी की नहीं हो सकती है. वन विभाग के अलावा केवल आदिवासियों को इस मामले में कुछ अधिकार मिले हुए हैं. यहां आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बाहर कर दिया गया, उन दावों के आधार पर जो वक़्फ़ द्वारा किए गए थे. इसी तरह, देश के बाकी हिस्सों में भी लाखों लोग इस तरह प्रभावित हुए हैं.”
जगदम्बिका पाल उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उन्होंने कहा कि जेपीसी सभी हिस्सेदारों की बात और उनके सुझाव सुनेगी. उन्होंने कहा, “हम एक विस्तृत रिपोर्ट बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
ये भी पढ़ें-हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी इस मामले का फ़ायदा उठाने के लिए तैयार है, जबकि कांग्रेस पूरी तरह से इसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश में है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफ़ेसर हरीश रामास्वामी ने बीबीसी हिंदी से कहा, “कांग्रेस ने एक बड़ा सा केक प्लेट में सजाकर बीजेपी को दे दिया है. बीजेपी अब इसके ज़रिए केवल हिंदू वोटों को अपनी ओर करने की कोशिश करेगी. इसके लिए वह यह ग़लत दावा भी करेगी कि वक़्फ़ के द्वारा हिंदुओं की ज़मीन को छीना जा रहा है. वहां ज़मीन से भावनाएं जुड़ी हुई हैं. कांग्रेस को भविष्य में होने वाले चुनावों में इस मामले को लेकर बहुत सतर्कता बरतनी होगी.”
प्रोफ़ेसर असदी इस मामले को अलग तरह से देखते हैं. वह कहते हैं, “इस मामले को बढ़ा-चढ़ाकर इतना बड़ा बनाने के पीछे का मक़सद यही है कि ज़मीनी स्तर पर मुस्लिम समुदाय को और भी ज़्यादा असहज बनाया जा सके.”
मगर, लोगों ने एक सप्ताह पहले हुए एक कार्यक्रम में इस मामले को लेकर अलग तरह से प्रतिक्रियाएं भी दीं हैं. यह मौका विजयपुरा में एक मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह का था, जिसका हाल ही में नवीनीकरण किया गया था.
वहां जब बीजेपी विधायक बासनगौड़ा पाटिल यतनाल ने अपने भाषण में कहा कि 8 एकड़ ज़मीन को लेकर ‘वक़्फ़ ने दावा’ किया था, तो लोगों ने उनके भाषण पर आपत्ति जताई. लोगों ने विधायक से कहा, “कृपया यहां राजनीतिक बातें न करें.”
यतनाल ने बोलना बंद कर दिया और मंच से चले गए. तभी वहां दर्शकों में मौजूद एक समूह ने उनसे कहा, “इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए सभी समुदायों ने लाखों रुपए की राशि दी है. इनमें मुस्लिम भी शामिल हैं.”
केरल स्टोरीकेरल में एक अजीब समस्या सामने आई है. कोच्चि के उपनगर मुनंबम में लगभग 614 मछुआरों के परिवार एक मुश्किल परिस्थिति का सामना कर रहे हैं. दरअसल, सिटी कॉर्पोरेशन ने 114 एकड़ ज़मीन को वक़्फ़ की ज़मीन घोषित कर दिया और वहां रहने वालों से टैक्स भी नहीं लिया है. इसका मतलब है कि वे लोग अब उनके छिन्न-भिन्न मकानों को ठीक भी नहीं कर सकते हैं.
मूल समस्या यह है कि त्रावणकोर की रॉयल फ़ैमिली ने 407.6 एकड़ ज़मीन फारूक कॉलेज को ‘वक़्फ़ डीड’ के तौर पर दी थी. (हालांकि, बाढ़ के चलते यह ज़मीन घटकर अब 114 एकड़ रह गई है.) तब इसके लिए दो शर्तें लगाई गई थीं. एक यह कि कॉलेज इस ज़मीन को बेच सकता है और इससे मिलने वाली राशि का इस्तेमाल शैक्षणिक उद्देश्य के लिए कर सकता है. दूसरा यह था कि अगर इस ज़मीन का इस्तेमाल केवल शैक्षणिक उद्देश्य से ही किया जा रहा है, तो क़ानूनी उत्तराधिकारी इसे वापस ले सकते हैं.
एक वकील मुहम्मद शा ने बीबीसी हिंदी से कहा, “कॉलेज ने साल 1967 में अतिक्रमणकारियों को हटाए जाने को लेकर एक याचिका लगाई थी. निचली अदालत ने इस ज़मीन को वक़्फ़ भूमि बताया था. कॉलेज ने फिर हाई कोर्ट में अपील की थी, जिसने इस ज़मीन को ‘वक़्फ़ डीड’ बताया था. उसके बाद डिवीज़न बेंच ने कह दिया था कि यह वक़्फ़ की ज़मीन है. यह बहुत ही विरोधाभासी है.”
रोचक बात यह है कि मछुआरों में अधिकांश परिवार ईसाई हैं, जिन्हें कॉलेज अथॉरिटीज़ ने यह ज़मीन बेची थी. शा ने कहा, “यह एक क़ानूनी लड़ाई है, जिसे हल किए जाने की ज़रूरत है.”
शा काउंसिल फॉर कम्युनिटी कॉपरेशन का प्रतिनिधित्व करते हैं. काउंसिल के तीन सहयोगियों में केरल कैथोलिक बिशप काउंसिल के अध्यक्ष कार्डिनल बेसलियोस क्लीमिस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सादिक अली थंगल और शिवगिरी मठ के प्रमुख शिवगिरी मदातिपति शामिल हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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