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7 अक्टूबर: जब मदर टेरेसा ने शुरू किया 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' का सफर

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नई दिल्ली, 6 अक्टूबर (आईएएनएस)। 7 अक्टूबर, 1950...यह वही दिन है जब कोलकाता में एक छोटे से संगठन ने मानवता की सेवा का एक ऐसा संकल्प लिया, जिसने दुनिया को प्रेरित किया। यह संगठन था 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी', जिसकी नींव मदर टेरेसा ने रखी थी। मदर टेरेसा, एक नाम जिसे सुनते ही हमें प्रेम, दया और समर्पण का एहसास होता है। एक साधारण सी साड़ी पहनने वाली मदर टेरेसा, दुनिया भर में लाखों लोगों के लिए मसीहा थीं। उनकी मुस्कान में इतनी शक्ति थी कि वह किसी भी दुखी दिल को शांत कर सकती थी। उनकी आंखों में इतनी गहराई थी कि वे किसी भी पीड़ित को आशा दे सकती थीं।

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को मैसेडोनिया में स्कोप्जे नामक जगह पर हुआ था और वह एक अल्बानियाई परिवार से थीं। भारत उनकी कर्मभूमि थी जहां 1947 में उनको भारत की नागरिकता मिली थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों और पीड़ितों की सेवा में समर्पित कर दिया। वह बांग्ला धाराप्रवाह बोलती थीं और उनकी साड़ी अक्सर रफू मिलती थी। कहा जाता है कि उनके पास केवल तीन ही साड़ियां थीं। इस साड़ी में सादगी और त्याग की छवि झलकती थी। वे कहती थीं, "पाप से नफरत करो, पापी से नहीं," और इस सिद्धांत पर उन्होंने जीवन भर अमल किया।

कहा जाता है कि टेरेसा का हैंडशेक इतना मजबूत था कि लोग पहली बार में ही उनसे प्रभावित हो जाते थे। उनका हाथ पकड़ने वाले लोगों ने महसूस किया कि उनके मजबूत हाथों में न केवल ताकत, बल्कि अपार स्नेह भी था। उनका सेंस ऑफ ह्यूमर और लोगों के प्रति उनकी गहरी समझ उन्हें खास बनाती थी।

7 अक्टूबर को मदर टेरेसा को वेटिकन से 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की अनुमति मिली थी। इसका उद्देश्य था—उन सबसे उपेक्षित और वंचित लोगों की सेवा करना, जिन्हें समाज ने अनदेखा कर दिया था। गरीब, बेघर, बीमार, त्याग दिए गए लोगों के लिए यह संगठन प्रेम और देखभाल का एक प्रतीक बन गया। इसकी शुरुआत कोलकाता में 12 सदस्यों के साथ हुई थी, और आज यह संगठन में सैकड़ों देशों में कार्यरत है, जिनमें से अधिकतर केंद्र भारत में हैं।

मिशनरीज ऑफ चैरिटी एक रोमन कैथोलिक स्वयंसेवी धार्मिक संगठन है। इसमें शामिल होने के लिए कई कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। मिशनरीज विश्व भर में, गरीब, बीमार, शोषित और वंचित लोगों की सेवा और सहायता में अपना योगदान देते हैं। उन्हें युद्ध पीड़ितों और एड्स पीड़ितों की सेवा में भी समर्पित रहना पड़ता है।

1971 में जब बांग्लादेश युद्ध के हालात बने तो पूरा कोलकाता उस जमाने का बांग्लादेशी शरणार्थियों से भर गया था। तब मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी ने उल्लेखनीय कार्य किया था। इसके अलावा, 1952 में मदर टेरेसा ने 'निर्मल हृदय' नामक एक केंद्र की स्थापना की, जहां गंभीर रूप से बीमार लोग गरिमा के साथ अपनी अंतिम सांस ले सकते थे। इसके बाद वृद्धों, अंधों और विकलांगों के लिए भी कई केंद्र खोले गए। उन्होंने आसनसोल के पास कुष्ठ रोगियों के लिए 'शांति नगर' नामक एक कॉलोनी भी बनाई, जो समाज से दूर छूट गए लोगों के लिए आश्रय बनी।

मदर टेरेसा का जीवन मानवता के प्रति समर्पण का सबसे ऊंचा उदाहरण था। 1979 में उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। लेकिन उन्होंने इस पुरस्कार के बाद आयोजित समारोह में भोजन करने से मना कर दिया था, ताकि उस धन का उपयोग गरीबों के भोजन के लिए किया जा सके। बताया जाता है कि वह अपने आश्रम के बाहर न कुछ खाती थीं न कुछ पीती थीं।

हालांकि मदर टेरेसा को लेकर कुछ विवाद भी रहे। असल में उनकी सेवा हमेशा धर्म से जुड़ी रही और इसी वजह से विवाद भी हुए थे। कुछ लोगों ने तो उनको धार्मिक साम्राज्यवादी तक कह दिया था जो सेवा के जरिए गरीबों में ईसाई धर्म फैलाना चाहती थीं। एक बार उन्होंने यह भी कहा था कि अगर वह गैलीलियो के समय में पैदा हुई होती तो चर्च का ही साथ देती। कहा यह भी जाता है कि उनके कोलकाता केंद्र में कई बार सफाई न के बराबर होती थी और कई मरीजों का उचित इलाज भी नहीं किया जाता था। उनके आलोचक उन्हें गरीबों की जगह 'गरीबी' का दोस्त बताते थे।

लेकिन यह सब तर्क और विवाद की बातें वहां ठीक हैं जहां हम इन्हें करने की स्थिति में हों। सच यह है कि सड़क पर पड़े भूख से तड़पते व्यक्ति को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके लिए मदद का हाथ बढ़ाने वाला ही मसीहा है। मदर टेरेसा का निधन 5 सितंबर, 1997 को हुआ था और 2016 में उन्हें रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा संत की उपाधि दी गई थी।

--आईएएनएस

एएस/

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