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क्यों कहा जाता है छठ को लोकपर्व, सांप्रदायिक सौहार्द का भी प्रतीक

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नई दिल्ली, 3 नवंबर . लोक आस्था के महापर्व ‘छठ’ की शुरुआत 5 नवंबर को नहाए-खाए के साथ होगी. चार दिन तक चलने वाले इस महापर्व को बिहार, यूपी, झारखंड समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में मनाया जाता है. यह पर्व सांप्रदायिक सौहार्द को भी प्रदर्शित करता है. क्यों कहा जाता है इसे लोकपर्व? आइए जानते हैं.

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक छठ उत्सव मनाया जाता है. यह त्योहार भगवान सूर्य देव को समर्पित है. चार दिनों के इस लोकपर्व के पहले दिन नहाए-खाए, दूसरे दिन खरना और तीसरे दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. चौथे दिन उगते सूर्य को जल अर्पण कर व्रत संपन्न होता है.

चार दिनों तक चलने वाला लोकपर्व छठ अपनी परंपराओं के साथ एकता का भी संदेश देता है. इस पर्व पर हिंदू -मुसलमान हर किसी की सहभागिता की झलक दिखती है.

भले ही देश में आज भी जाति को लेकर भेदभाव देखने को मिल जाए, लेकिन छठ ऐसा पर्व है, जिसमें जाति के सारे बंधन टूट जाते हैं. ‘सूप-डाला’ बनाने वाले लोग, किसान, फल सब्जी बेचने वाला दुकानदार, सड़क और घाटों की सफाई करने वाले लोग सबकी अहम भूमिका होती है.

यही नहीं, लोकआस्था का महापर्व हिंदू-मुस्लिमों के बंधन को मजबूत करने का काम करता है. पटना में ही मुस्लिम समुदाय की महिलाएं दशकों से मिट्टी के चूल्हे बना रही हैं. इसी चूल्हे पर पूजा का प्रसाद तैयार किया जाता है. खास बात ये कि चूल्हा बनाने वाली महिलाएं महीने भर तक लहसुन, प्याज और मांसाहारी भोजन त्याग देती हैं.

तो इस तरह ये लोकपर्व बन गया. सूर्य और उनकी बहन छठी मैया की पूजा होती है जो बच्चों के लालन-पालन की देवी मानी जाती हैं. सूर्य आरोग्य के देवता भी माने जाते हैं तो इस तरह घर परिवार की सुख समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य के लिए छठ उत्सव मनाया जाता है.

हिंदू सनातन धर्म में जप और तप का महत्वपूर्ण स्थान है. जप जिसे मंत्रोच्चार से संभव बनाया जाता है तप वो जिसमें शारीरिक कष्ट सहकर ईश्वर की आराधना की जाती है. छठ इसी तप का नाम है. जिसमें हर जाति वर्ग के लोग तप करते हैं अर्घ्य देने के लिए या फिर मंत्रोच्चारण के लिए किसी पुरोहित की जरूरत नहीं होती बल्कि शुद्ध भाव से भगवान भास्कर को दूध या जल अर्पित कर देते हैं.

एफएम/केआर

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