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एक भारतीय महानायक जो चिता पर पति के साथ जलाई जा रही महिला के दर्द से कराह उठे, उनकी आवाज ने किया इस कुरीति का खात्मा

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नई दिल्ली, 26 सितंबर . भले ही समाज में कितनी भी बुराइयों हों, लेकिन अगर उसे सुधारने की कोशिश की जाए तो समाज में फैली बुराइयों को समाप्त किया जा सकता है. यह सोच लेकर चलने वाले भारत के महानायक जिन्होंने सती प्रथा जैसी कुरीति के खिलाफ आवाज उठाई तो पूरा देश उनके साथ हो लिया. इस महान शख्सियत का जन्म हुआ था आज से करीब ढाई सौ साल पहले, जिनकी वजह से भारत में फैली सामाजिक बुराइयां, अंधविश्वास, अमानवीय प्रथाएं और रीति-रिवाजों का अंत हो पाया.

हम बात कर रहे हैं ‘राजा राममोहन राय’ की, 21वीं सदी में भले ही इस नाम का जिक्र कम होता होगा, लेकिन उन्हीं के प्रयासों की वजह से आधुनिक भारत का सपना साकार रूप ले पा रहा है. उन्हें भारत के पुनर्जागरण का पिता भी कहा गया.

27 सितंबर को भारत के पुनर्जागरण के जनक, समाज सुधारक और लेखक ‘राजा राममोहन राय’ की पुण्यतिथि है. राजनीति, लोक प्रशासन, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में उनका नजरिया स्पष्ट तौर पर दिखाई देता था. राजा राममोहन राय ही थे, जिनकी वजह से देश में सती प्रथा और बाल विवाह को समाप्त किया गया. उनके इन्हीं प्रयासों के मद्देनजर मुगल सम्राट अकबर द्वितीय के शासनकाल (1806-1837) के दौरान उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी गई.

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई 1772 में बंगाल के राधानगर में एक संपन्न परिवार में हुआ था. उनकी उम्र महज 15 साल थी, लेकिन उनकी बंगाली, संस्कृत, अरबी और फारसी पर अच्छी पकड़ थी. उन्होंने अपने जीवनकाल में 1809 से 1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भी काम किया. हालांकि, इसी दौरान उन्हें समाज को भी बहुत गहराई से जानने का मौका मिला. इसी के चलते उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की.

बताया जाता है कि राममोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़ दी और खुद को देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया. उन्होंने दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ी, एक थी भारत की स्वतंत्रता के लिए और दूसरी थी समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ. समाज की कुछ घटनाओं का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और इसी को रोकने के लिए उन्होंने बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा का विरोध किया. आगे चलकर उन्हें इन प्रयासों में कामयाबी भी मिली. यही नहीं, उन्होंने जाति व्यवस्था, छुआछूत, अंधविश्वास और नशीली दवाओं के इस्तेमाल के खिलाफ भी अभियान चलाया.

साल 1828 में उन्होंने देवेन्द्रनाथ टैगोर के साथ मिलकर ब्रह्मो सभा की नींव रखी. हालांकि, तब तक उनके प्रयासों की वजह से उन्हें देशभर में जाना जाने लगा था. साल 1830 में वह मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय के दूत बनकर इंग्लैंड गए, उन्हें राजा विलियम चतुर्थ के दरबार में उन्हें राजा की उपाधि दी गई.

समाज को सुधारने के लिए राजा राममोहन राय ने लेखक के तौर पर कई लेख भी लिखे. उन्होंने ‘ब्रह्ममैनिकल मैग्जीन’, ‘संवाद कौमुदी 1821’, ‘मिरात-उल-अखबार 1822’ और बंगदूत जैसी पत्रिकाओं का भी संपादन किया. बंगदूत में बांग्ला, हिंदी और फारसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता था. साल 1823 में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रेस पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून के खिलाफ भी उन्होंने अपनी आवाज उठाई थी. राजा राममोहन राय का इंग्लैंड में 27 सितंबर 1833 को निधन हो गया.

एफएम/जीकेटी

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