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पहाड़ों पर पर्यटन को बढ़ावा पर्यावरणीय विनाश में बदला, संभल जाएं, प्रकृति दूसरा मौका नहीं देगी

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हिमाचल प्रदेश के  मुख्यमंत्री ने हाल ही में घोषणा की है कि राज्य सरकार ने ऐसी 50 नई जगहों की पहचान की है जहां एडवेंचर स्पोर्टस् समेत पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है। इसके बारे में सोचकर ही मैं काप जाता हूं। शिमला, कुफरी, मशोबरा, मैक्लॉयडगंज या कसौली में जो आपाधापी मची है, उसे तो छोड़ ही दें, हाल के सालों में ‘विकास’ ने उन इलाकों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है जिन्हें 10-15 साल पहले तक अनछुआ समझा जाता था।  

पहाड़ों में विकास की सरकारी अवधारणा का आम तौर पर यही मतलब होता है कि खराब सड़कों को ठीक कर दिया जाए ताकि गाड़ियां आसानी से पहुंच सकें और नियम-कायदों या वहन क्षमता को ताक पर रखकर होटल, दुकानों, गेस्ट हाउस, होम स्टे को बढ़ावा दिया जाए। मैं ऐसी तमाम जगहों के उदाहरण दे सकता हूं जिन्हें पर्यटन को ‘बढ़ावा’ देने के नाम पर पर्यावरणीय विनाश में बदल दिया गया।

बीर-बिलिंग जहां इतने अनधिकृत निर्माण हो गए हैं कि पैराग्लाइडरों को सुरक्षित लैंडिंग स्पॉट ढूंढने में दिक्कत होती है और अब वहां बेवजह मोटरयोग्य सड़क (बिलिंग से राजगुंडा तक थमसर दर्रे की ओर) बनाई जा रही है जो एक सुंदर ट्रेक को बर्बाद कर देगी। नारकंडा के ऊपर हाटू चोटी तक का रास्ता जो कभी घने देवदार और ओक के जंगलों के बीच से 8 किलोमीटर का पैदल ट्रेक था, अब उसे बीस मिनट की ड्राइव में बदल दिया गया है और चोटी पर हरे-भरे चरागाह की जगह धूल भरे पार्किंग क्षेत्र बन गए हैं।

मंडी जिले में पराशर झील तक सड़क बना दी गई है जिससे वहां के घास के मैदान तबाह हो गए हैं, और अवैज्ञानिक कटाई वहां लगातार भूस्खलन का कारण बन गई है। नोहराधार से चूड़धार वन्यजीव अभयारण्य के बीचों-बीच से दस किलोमीटर लंबी सड़क बनाई जा रही है और हाल ही में एनजीटी ने शिकारी देवी अभयारण्य से होकर सड़क बनाए जाने के मामले में सरकार को नोटिस भेजा है।

इन सड़कों के कारण बड़े पैमाने पर वनों की कटाई होगी, वन्यजीवों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा, अनियंत्रित निर्माण होगा और हजारों टन मलबा नालों और जलमार्गों को अवरुद्ध करेगा। रोजाना हजारों गाड़ियां आएंगी और इसी के साथ दसियों हजार गैरजिम्मेदार पर्यटक आ धमकेंगे। चंबा में मणि महेश, मंडी में शिकारी देवी, पार्वती घाटी में खीरगंगा, किन्नौर में किन्नर कैलाश, शिमला और कुल्लू की सीमा पर श्रीखंड महादेव जैसे तीर्थस्थलों की ऐसी स्थिति है जैसे ये कोलंबिया और मैक्सिको के बीच के सामूहिक प्रवास मार्ग हों। हर साल हजारों कथित ‘तीर्थयात्री’ यहां आते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं हजारों टन कचरा, प्लास्टिक, मानव अपशिष्ट। ये आस-पास के जंगलों को खाना पकाने और कैंप फायर के लिए नष्ट कर देते हैं। यहां तक कि लुप्तप्राय ‘धूप’ की झाड़ियों को भी उखाड़कर ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

कभी जो ट्रेक आपको आनंद दिया करते थे, आज ओला-ऊबर राइड के दायरे में आ गए हैं या कूड़े-कचरे के डंपिंग जोन बनकर रह गए हैं। राज्य की प्राकृतिक धरोहर भयावह रफ्तार से खत्म हो रही है। जंगल से जंगली जानवरों को हटाया जा रहा है। बहुत जरूरी है कि भावी पीढ़ी के लिए राज्य सरकार इस प्रवृत्ति को पलटे और बचे जंगलों के प्रति अपनी नीतियों को बदलें। अन्य देशों ने इसे समझा है और इस दिशा में कदम उठा रहे हैं: ऑस्ट्रेलिया से लेकर ब्राजील तक, ब्रिटेन से लेकर चिली तक खेतों, गोल्फ क्लब, खदानों के लिए इस्तेमाल की जा रही जमीनों को जंगल के लिए छोड़ा जा रहा है। न केवल सरकार बल्कि निजी ट्रस्ट और आम लोग तक इसके लिए पैसे जुटा रहे हैं। भारत के अन्य इलाके न सही तो हिमाचल को तो उनसे सीखना ही चाहिए। इसके लिए कई उपाय करने होंगे।

सबसे पहले, यहां आने वालों की संख्या को नियंत्रित करना होगा। ऐसा लगता है कि सरकार 2030 तक यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या को बढ़ाकर 5 करोड़ करना चाहती है। यह सही नहीं। कोई तरीका नहीं है कि 70 लाख आबादी वाला राज्य अपनी आबादी से सात गुना अधिक लोगों को संभाल सके। पर्यटन एक उत्पाद है और अगर आपके पास अनूठा उत्पाद है (जैसे हिमाचल की प्राकृतिक छटा) तो उसे सस्ते में न बेचें। अगर लोग सलमान खान की बकवास फिल्म के लिए 500 रुपये या कोल्डप्ले के लाइव शो के लिए हजारों रुपये दे सकते हैं तो उन्हें ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क में भूरे भालू या पश्चिमी ट्रैगोपैन को देखने या मंतलाई झील में रात के आसमान की चमकीली सुंदरता को देखने के लिए इतना ही या उससे अधिक खर्च करने के लिए कहा जाए तो उन्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए।

दूसरा, ट्रेक की लंबाई, पर्यावरणीय प्रभाव, ऊंचाई, ग्लेशियरों और बर्फ के मैदानों से निकटता और कैंपिंग की रातों के आधार पर शुल्क लेना शुरू करें। मुझे यह पढ़कर खुशी हुई कि अब त्रिउंड में ट्रेकर्स और कैंपर्स से 250 रुपये प्रति रात का शुल्क लिया जा रहा है। यह अच्छी शुरुआत है लेकिन शुल्क को बढ़ाकर कम-से-कम 500 रुपये प्रति रात किया जाना चाहिए। त्रिउंड धौलाधार की तलहटी में है। इलाका पथरीला और नाजुक है और यहां पानी या शौचालय की डिस्पोजेबल सुविधाएं नहीं हैं। जब भी कोई यहां कैंप करता है तो उसका फुटप्रिंट बहुत बड़ा होता है। इसलिए उससे उसी अनुपात में शुल्क लिया जाना चाहिए। इस शुल्क का कुछ हिस्सा स्थानीय इकोटूरिज्म सोसाइटी को इन ट्रेक के रखरखाव और साफ-सफाई के लिए दिया जाना चाहिए।

तीसरा, 3800 मीटर से अधिक ऊंचाई पर या ग्लेशियरों के आसपास कैंपिंग पर रोक होनी चाहिए। ऐसा ही वैज्ञानिकों/भूवैज्ञानिकों के उस समूह की भी सिफारिश है जिन्होंने लद्दाख, हिमाचल और उत्तराखंड की ऊंचाइयों पर कैंपिंग के प्रभाव का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया है कि कैंप फायर, वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन, सड़ने वाला अपशिष्ट पदार्थ आदि आस-पास के क्षेत्र में एरोसोल और ब्लैक कार्बन के स्तर को बढ़ा देते हैं जिससे ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं। उन्होंने खास तौर पर बारा शिगरी ग्लेशियर और लाहौल स्पीति के चंद्रताल-बटल क्षेत्र में ऐसा देखा है। इन स्थानों पर छोड़े गए कचरे और मानव अपशिष्ट स्थानीय दुर्लभ वन्यजीवों को ऐसे कीटाणुओं और बीमारियों के संपर्क में लाते हैं जिनके खिलाफ उनके पास कोई प्रतिरक्षा नहीं होती।

यह जानकर खुशी हुई कि पिछले ही महीने वन अधिकारी ने कुल्लू में पार्वती घाटी के खीरगंगा में कैंपिंग पर रोक लगा दी है। इस साहसिक पहल को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील अन्य क्षेत्रों तक बढ़ाया जाना चाहिए, जैसे: चंद्रताल झील, मंतलाई झील, श्रीखंड महादेव ट्रेक पर भीम द्वार के ऊपर का पूरा क्षेत्र, किन्नर कैलाश ट्रेक पर नालंती और चितकुल के बीच का पूरा क्षेत्र, चूड़धार चोटी तक।

चौथा, हिमाचल सरकार को राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों में कथित ‘आध्यात्मिक पर्यटन’ के कारण बड़े पैमाने पर होने वाले नुकसान के प्रति जागरूक होना चाहिए। 1976 में चंबा के एसडीएम के रूप में मैं पवित्र मणिमहेश झील जाने वाले जत्थे में शामिल था। करीब तीन सौ तीर्थयात्री थे लेकिन तब भी हडसर, धनचो, दोनाली और गौरी कुंड में शिविर स्थलों की सफाई सुनिश्चित करना एक समस्या थी। इस साल की यात्रा के बाद स्वयंसेवकों द्वारा 8 टन कचरा एकत्र किया जा चुका है और अब भी वहां बहुत अधिक कचरा बचा है। आज लगभग 6 से 7 लाख लोग झील पर आते हैं और मुझे बताया गया है कि झील कचरे और प्लास्टिक से भर गई है। पूरा मार्ग एक लंबे शौचालय के गड्ढे जैसा दिखता है। मेरे पास यह मानने का कोई कारण नहीं कि अन्य ‘यात्रा’ मार्गों- शिकारी देवी, किन्नर कैलाश, चूड़धार, श्रीखंड महादेव के मामले में भी ऐसा नहीं हो रहा। 

इससे पहले कि हम उत्तराखंड की चार धाम यात्रा की तरह ही विनाश की तलहटी तक पहुंच जाएं, सरकार को इन यात्राओं पर जाने वालों की संख्या को सीमित करने के बारे में तुरंत कुछ करना चाहिए। इसके साथ ही हमें समझना होगा कि प्रकृति को भी अपने को तरोताजा और दुरुस्त करने के लिए आराम की जरूरत होती है। सभी ट्रेकिंग ट्रेल्स, खास तौर पर अधिक ऊंचाई वालों को समय-समय पर एक-दो साल के लिए बंद कर देना चाहिए ताकि वहां की पारिस्थितिकी और वन्य-जीवों को स्वस्थ होने, अपनी प्राकृतिक और प्रजनन लय को फिर से हासिल करने में मदद मिले।

‘ओवर-ट्रेकिंग’ की ऐसी ही समस्याओं का सामना कर रहे कई देशों को यह एहसास होने लगा है और उन्होंने नियमित रूप से ये ब्रेक देना शुरू कर दिया है। इससे पहले कि हम उस बिंदु तक पहुंच जाएं जहां से वापसी संभव नहीं, हिमाचल के नीति निर्माताओं को जागना चाहिए। ऐसी स्थायी नीतियां लागू की जानी चाहिए जो प्राकृतिक संपत्तियों का वैज्ञानिक तरीके से दोहन करें, न कि अल्पकालिक लाभ के लिए उन्हें लापरवाही से बर्बाद कर दें। याद रखें, प्रकृति दूसरा मौका नहीं देगी।

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(अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस हैं। यह से लिए उनके लेख का संपादित रूप है)

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