नई दिल्ली: नब्बे के दशक में महेश भट्ट के निर्देशन में एक फिल्म बनी, नाम था- जुनून। फिल्म में अभिनेता राहुल रॉय थे, जो हर पूर्णिमा की चांदनी रात को बाघ बन जाते थे। फिल्म हिट रही और आज भी इस फिल्म को बेहतरीन हॉरर फिल्मों में गिना जाता है। खैर, ये तो थी फिल्मी कहानी, लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ जीव रियल लाइफ में भी ऐसे हैं, जिनपर चांद की रोशनी का एक अलग ही प्रभाव पड़ता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि चंद्रमा की रोशनी में इन जीव-जंतुओं का व्यवहार काफी हद तक बदल जाता है। उदाहरण के तौर पर ग्रेट बैरियर रीफ के मूंगे को ही लीजिए। हर बसंत में पूर्णिमा के कुछ दिनों बाद ये मूंगे एक साथ अंडे और शुक्राणु छोड़ते हैं। यह एक ऐसा अद्भुत नजारा है, जिसे अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि हर बसंत में एक खास समय पर चंद्रमा का प्रकाश मूंगों को संकेत देता है कि अंडे और शुक्राणु छोड़ने के लिए परिस्थितियां अनुकूल हैं। आइए, आपको ऐसे ही पांच जीवों के बारे में बताते हैं। 1- बार्न उल्लूबार्न उल्लू दो रंगों में मिलते हैं- लाल और सफेद। इन उल्लुओं का मुख्य भोजन होता है खेतों में रहने वाले चूहे। आपको जानकर हैरानी होगी कि पूर्णिमा की रात में लाल उल्लू की अपेक्षा सफेद उल्लू ज्यादा शिकार करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पूर्णिमा की चांदनी रात सफेद उल्लुओं के पंखों से टकराकर चूहों को चकाचौंध कर देती है, जिससे उल्लू उन्हें आसानी से पकड़ लेते हैं। यह खोज 2019 में हुई एक रिसर्च में भी सामने आई। 2- अफ्रीकी मेफ्लाईपूर्वी अफ्रीका में विक्टोरिया झील में कीट-पतंगों की एक प्रजाति मिलती है, जिसका नाम है मेफ्लाई। पूर्णिमा के दो दिन बाद मेफ्लाई अपने जलीय लार्वा चरण से बड़ी संख्या में निकलती हैं। एक वयस्क के तौर पर मेफ्लाई केवल एक से दो घंटे तक जीवित रहती है, इसलिए मरने से पहले वे अपने साथी के साथ संबंध बनाने और अंडे देने की बहुत जल्दी में होती हैं। द कन्वर्सेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, एक टाइमर के तौर पर चंद्रमा के चक्र का उपयोग करने से उन्हें यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि संभावित साथी आसपास ही होंगे। फिर चांद की रोशनी उन्हें अपने जरूरी कार्यों को पूरा करने में भी मदद करती है। 3- नाइटजरनाइटजर ऐसे पक्षी हैं, जो शाम और भोर में उड़ने वाले कीड़ों का शिकार करते हैं। मोशन सेंसर का इस्तेमाल कर जब एक साल के लिए इनकी उड़ान को मॉनीटर किया गया तो पता चला कि पूर्णिमा के दौरान, नाइटजर ने अपने शिकार का समय रात में बढ़ा दिया, क्योंकि उन्हें चांद की रोशनी ने अधिक कीड़े पकड़ने में सक्षम बनाया। पूर्णिमा के दौरान इनके पास शिकार करने के लिए ज्यादा समय था, इसके बावजूद ये पक्षी अपने स्थानीय इलाके में ही रहे।इसके बाद बसंत और पतझड़ के दौरान, ढलते चांद में लगभग 12 दिनों में नाइटजर यूरोप और दक्षिणी अफ्रीका के बीच अपनी लंबी उड़ानों पर निकल गए। चंद्रमा यह भी तय करता है कि नाइटजर कब अंडे दें। ये पक्षी यह सुनिश्चित करते हैं कि उनके अंडे पूर्णिमा रात में ही निकलें, ताकि जब उनके चूजों को भोजन की सबसे अधिक जरूरत हो, तो उनके पास एक अनुकूल स्थिति हो। 4- स्विफ्ट पक्षीकाला स्विफ्ट पक्षी पश्चिमी अमेरिका और कनाडा में चट्टानों के किनारों और निचले हिस्सों में अपना घोंसला बनाता है। 2012 तक इसके प्रवास के बारे में बहुत कम जानकारी थी, इसके बाद वैज्ञानिकों ने ट्रैकिंग उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए इसकी जानकारी जुटाई। वैज्ञानिक पहले से ये तो जानते ही थे कि यूरोपीय स्विफ्ट पक्षी जब प्रजनन नहीं कर रहे होते, तो साल के दस महीनों तक लगातार उड़ते रहते हैं। 2022 में वैज्ञानिकों ने काले स्विफ्ट पर भी इस बारे में रिसर्च की। इसके लिए वैज्ञानिकों ने इन पक्षियों पर बहु-सेंसर डेटा लॉगर लगाए। रिसर्च में पता चला कि गैर प्रजनन अवधि के दौरान हर पूर्णिमा के आसपास के दस दिनों में, ये पक्षी शाम के बाद ज्यादा ऊंचाई (4000 मीटर) तक चढ़ गए और रात भर वहीं रहे। वहीं, अमावस्या के आसपास ये कम ऊंचाई पर बने रहे।डेटा से पता चला कि स्विफ्ट पक्षी जब ज्यादा ऊंचाई पर थे, तो ज्यादा एक्टिव रहे। इसके साथ ही हर पूर्णिमा के समय इन्होंने ज्यादा एनर्जी का इस्तेमाल करते, ज्यादा संख्या में कीड़े पकड़े। रिसर्च के दौरान ही जब चंद्र ग्रहण लगा, तो पांच काले स्विफ्ट चांदनी में ऊंची उड़ान भर रहे थे। जैसे ही पृथ्वी की छाया से चंद्रमा ग्रहण हुआ, सभी स्विफ्ट तेजी से नीचे उतर आए। 5-डंग बीटल (गुबरीला)अफ्रीकी डंग बीटल, सूरज और चांद की रोशनी का इस्तेमाल करके गोबर के ढेर से सीधा रास्ता खोज लेते हैं। 2003 में वैज्ञानिकों ने देखा कि पूर्णिमा की रोशनी में ये बीटल बिलकुल सीधा रास्ता पकड़ते हैं, लेकिन अमावस्या पर भटक जाते हैं। ये बीटल हाथी के गोबर से गेंद बनाते हैं और फिर उसमें अपने बच्चों को पालते हैं। दूसरे बीटल से बचने के लिए, ये इन गेंदों को गोबर के ढेर से दूर ले जाते हैं। इसके लिए सीधी रेखा में चलना सबसे आसान रास्ता होता है।दिन में ये बीटल सूरज की रोशनी और उससे निकलने वाले ध्रुवीकरण पैटर्न (जो इंसानों को नहीं दिखाई देता) का इस्तेमाल करके सीधा रास्ता खोज लेते हैं। शाम ढलने के बाद जब सूरज की रोशनी नहीं होती, तो ये बीटल चांद की ध्रुवीकरण वाली रोशनी का इस्तेमाल करते हैं। यह रोशनी सूरज की रोशनी से बहुत कम होती है, लेकिन पूर्णिमा के समय यह बीटल को सीधा रास्ता दिखाने में मददगार होती है।2003 में हुई एक रिसर्च में, वैज्ञानिकों ने विशेष कैमरा लेंस का इस्तेमाल कर पूर्णिमा के ध्रुवीकरण पैटर्न की दिशा बदल दी। हैरानी की बात ये थी कि बीटल ने भी अपनी दिशा बदल दी। वहीं, अमावस्या की रातों में बीटल सीधा रास्ता नहीं बना पाते थे और इधर-उधर भटकते रहते थे।
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