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S. H. Kapadia Birthday सरोश होमी कपाड़िया के जन्मदिन पर जानें इनका जीवन परिचय

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सरोश होमी कपाड़िया (अंग्रेज़ी: S. H. Kapadia, जन्म- 29 सितम्बर, 1947, मुम्बई; मृत्यु- 4 जनवरी, 2016) भारत के 38वें मुख्य न्यायाधीश थे। एस. एच. कपाड़िया 12 मई, 2010 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए थे तथा 28 सितंबर, 2012 में इस पद से सेवानिवृत्त हुए। एक न्यायाधीश के अतिरिक्त एस. एच. कपाड़िया अर्थशास्त्र, लोक वित्त, सैद्धांतिक भौतिकी के भी गहरे जानकार थे। हिन्दू और बौद्ध दर्शनों का भी उन्होंने गहन अध्ययन

 एच. कपाड़िया का जन्म 29 सितम्बर, 1947 को मुम्बई, महाराष्ट्र में हुआ था। पारसी समुदाय से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे। 2 जी, वोडाफोन, सहारा और सल्वा जुडूम जैसे कई महत्वपूर्ण फैसलों के लिए न्यायाधीश एस. एच. कपाड़िया जाने जाते थे। एस. एच. कपाड़िया के क़ानूनी सफर की शुरुआत एक लॉ फर्म में काम करने के साथ से हुई थी। उनका जीवन जीने का तरीका काफ़ी सादा था। मुम्बई उच्च न्यायालय के शुरुआती दिनों में वे नाश्ते में सिर्फ चने खाते थे। सेवानिवृत्ति के बाद भी 2012 में एस. एच. कपाड़िया ने किसी कमेटी में कोई पद नहीं लिया, वे बस अपने ऑफिस से ही काम करते रहे।

उच्चतम न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश रहे सरोश होमी कपाड़िया को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 12 मई को भारत के 38वें प्रधान न्यायाधीश के रूप में शपथ दिलाई थी। राष्ट्रपति भवन में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, उनके कैबिनेट के सहयोगी, निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. जी. बालाकृष्णन और अन्य गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे। वे 12 मई, 2010 से 28 सितंबर, 2012 तक प्रधान न्यायाधीश के पद पर रहे।

एस. एच. कपाड़िया पांच न्यायाधीशों वाली उस संवैधानिक पीठ से जुड़े रहे थे, जिसने नौंवी अनुसूची में शामिल क़ानून की न्यायिक पुनरीक्षा का ऐतिहासिक फैसला दिया था। न्यायमूर्ति कपाड़िया, कर क़ानूनों के विशेष जानकार थे। वह कड़े न्यायिक अनुशासन के लिए जाने जाते थे। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश का पदभार ऐसे समय ग्रहण किया था, जब भारतीय न्यायपालिका भ्रष्टाचार संबंधी विवादों में घिरी थी। न्यायमूर्ति एस. एच. कपाड़िया सुप्रीम कोर्ट में लगभग 771 फैसलों में संबद्ध रहे। भारत के प्रधान न्यायाधीश के रूप में उनका 28 महीने का कार्यकाल बेहद चुनौतीपूर्ण रहा, क्योंकि न केवल उच्चतम न्यायालय बल्कि उच्च न्यायालय एवं निचली अदालतों में भी बड़ी संख्या में मामले लंबित थे, जिनकी संख्या कम करने की आवश्यकता बहुत अधिक थी।


 

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