नहाय-खाय के साथ आज से आस्था के महापर्व छठ की शुरुआत हो चुकी है। बिहार, पूर्वांचल समेत देश के अलग-अलग हिस्सों समेत विदेशों में भी इस त्योहार को लेकर तैयारी चरम पर है। छठ घाटों की साफ-सफाई, अर्घ्य देने के लिए व्रतियों के लिए सारी व्यवस्थाएं हो चुकी हैं, लेकिन असीम श्रद्धा और उत्साह के इस माहौल में एक ऐसी खबर सामने आई है, जिससे इस त्योहार की रौनक इस बार काफी फीकी हो गई है। छठ की पहचान सिर्फ डाला, सूप, कोनिया, ठेकुआ भर ही नहीं है, इससे इतर एक खास स्वर भी है, जिसमें माटी की सोंधी खुशबू है, जो रोम-रोम में पवित्रता और उत्साह का संचार करता है, जिसमें दीनानाथ (सूर्यदेव) और छठी मैया की पुकार है, सुहाग और संतान के लिए मन की मुराद है। वह आवाज है बिहार कोकिला कही जानी वाली महान लोक गायिका शारदा सिन्हा की।
पिछले चार दशकों से भी अधिक समय तक हर घाट, हर गली, हर घर में दिवाली के बाद से ही शारदा सिन्हा के गानों की गूंज से ही एहसास हो जाता है कि छठ के आयोजन की शुरुआत हो चुकी है। एक तरह से उनके गाने छठ की पहचान हैं। शारदा सिन्हा ठीक छठ के नहाय-खाय के दिन इस धरा से गोलोक गमन कर चुकी हैं। उनके निधन से छठ की छटा इस बार निश्चित रूप से बेहद धुंधली रहेगी। भले ही घाटों पर उनके गीत के ही साथ अर्घ्य दिए जाएंगे, लेकिन एक मायूसी, एक उदासी हर किसी के चेहरे पर जरूर दिखेगी। उनके निधन से करोड़ों लोग शोकाकुल हैं। करीब दो हफ्ते से एम्स, दिल्ली में जिंदगी की जंग लड़ते हुए मंगलवार रात उन्होंने अंतिम सांस ली, लेकिन उनकी जिजीविषा तो देखिए जाते-जाते भी उन्होंने छठी मैया को समर्पित अपना अंतिम गीत उनके चरणों में समर्पित करके ही इस धरती से विदाई ली। पिछले हफ्ते अस्पताल से ही उनके बेटे अंशुमान ने सोशल मीडिया के जरिये अपनी मां की इच्छा का जिक्र करते हुए यूट्यूब पर इस गीत को रिलीज किया था। शारदा सिन्हा ने अपने इस अंतिम गाने में छठी मईया से गुहार लगाते हुए गाया- "दुखवा मिटाईं छठी मईया..."। लेकिन नियति को शायद यह मंजूर नहीं था। गत सितंबर में ही शारदा सिन्हा पर दुखों का पहाड़ टूटा, जब उनके पति ब्रजकिशोर सिन्हा का साथ हमेशा के लिए छूट गया। 54 सालों तक हमसाये रहे ब्रजकिशोर बाबू के निधन से शारदा सिन्हा बुरी तरह टूट चुकी थीं। हालांकि उन्होंने हिम्मत बटोरकर 20 अक्टूबर को सोशल मीडिया पर सिन्हा साहब की मधुर स्मृतियों के सहारे अपनी संगीत यात्रा को जारी रखने की बात कही थी, लेकिन इसी बीच सात साल पुरानी बीमारी ने उन्हें बुरी तरह चपेट में ले लिया, उनका स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरने लगा। एम्स, दिल्ली में डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका।
'हो दीनानाथ', 'केलवा के पात पर','पटना के घाट पर देब हम अरघिया', 'छठी मैया आईं न दुयरिया', 'पहिले पहिल हम कईनी छठी मईया व्रत तोहार' जैसे कई गाने छठ की पवित्रता के पर्याय हैं। छठ के गाने वैसे तो नई-पुरानी पीढ़ी के कई गायक-गायिकाओं ने गाए हैं, लेकिन शारदा सिन्हा के स्वर में छठ के गीत जनमानस में ऐसे रच-बस गए कि छठ और शारदा सिन्हा एक-दूसरे के पर्याय बन गए। उनके गायन में एक अलग तरह का ठहराव था और उनकी खनकदार आवाज ताउम्र वैसी ही बनी रही। सिर्फ छठ के गीत ही नहीं बल्कि सोहर, मुंडन, उपनयन, शादी-ब्याह के अलग-अलग रस्मों से लेकर दुल्हन की विदाई तक- मैथिली और भोजपुरी में शारदा सिन्हा के गाए गाने वहां की संस्कृति का अनूठा हिस्सा हैं।
बिहार के सहरसा (अब सुपौल) जिले के हुलास गांव में सन 1952 में जन्मीं शारदा सिन्हा के पिता सुखदेव ठाकुर शिक्षा विभाग में बड़े अधिकारी थे। शारदा सिन्हा जब छोटी थीं, तो खुद कविता लिखकर उन्हें गातीं। पिताजी ने बालपन में ही भांप लिया कि बिटिया असामान्य प्रतिभा की धनी हैं। काफी प्रगतिशील विचारों वाले सुखदेव ठाकुर ने तभी ठान लिया कि बेटी को संगीत की दुनिया में पहचान बनाने के लिए जो भी संभव होगा, वह करेंगे। उन्होंने पड़ोस के गांव के एक संगीत के जानकार को बिटिया को शास्त्रीय संगीत सिखाने का जिम्मा सौंपा। वहीं से संगीत की साधना शुरू हुई। विवाह के उपरांत जीवन साथी के रूप में ब्रजकिशोर सिन्हा मिले, जिन्होंने परिवार-समाज की परवाह किए बगैर पत्नी की सुर साधना को जारी रखने में सबकुछ झोंक दिया। संगीत की दुनिया के शुरुआती सफर के दौरान महान गायिका बेगम अख्तर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा था कि रियाज करो, बहुत आगे जाओगी। हुआ भी ऐसा ही, आगे चलकर अपने नाम 'शारदा' के अनुरूप ही उन्होंने लोक गायिकी में अनूठा मुकाम हासिल किया। 1971 में उनका पहला गाना रिकार्ड हुआ था, जो मैथिली में था और इसके बोल थे 'द्वार के छेकाई नेग पहिने चुकैयो'। 'मैथिल कोकिल' कवि विद्यापति के कई गीतों को उन्होंने स्वर दिया, जो जबरदस्त हिट साबित हुए। शारदा सिन्हा ने मैथिली, भोजपुरी, मगही के अलावा हिन्दी फिल्मों के लिए भी गाने गए, जिसमें मैंने प्यार किया का गीत- 'कहे तो से सजना', हम आपके हैं कौन का गीत-'बाबुल जो तुमने सिखाया' लोगों की जुबान पर आज भी मौजूद हैं। इसके अलावा उन्होंने गैंग्स ऑफ वासेपुर में 'तार बिजली से पतले' गाने को भी अपनी आवाज दी। उन्होंने उन्होंने चुनिंदा गजलें भी गाईं। वेब सीरीज महारानी-2 में उनकी आवाज में निरमोहिया गाना भी खूब लोकप्रिय हुआ।
पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा की प्रसिद्धि भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी खूब है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस तक उनके गाने गूंजते हैं। मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी में तो उनके लाखों प्रशंसक मौजूद हैं। शारदा सिन्हा की जितनी शोहरत थीं, उतनी ही वह विनम्र और माटी से जुड़ी शख्सियत थीं। इन पंक्तियों के लेखक का सौभाग्य है कि वह उसी गांव और उसी विस्तृत परिवार का हिस्सा है, जहां शारदा सिन्हा का जन्म हुआ। मेरी मां से उनका बहुत गहरा लगाव था। पिछले 54 सालों में जब कभी वह गांव आतीं- मां से मिलने जरूर आतीं। उनका पैतृक घर और मेरा घर करीब 250 मीटर की दूरी पर है। वह मेरे दरवाजे पर पहुंचते ही भौजी-भौजी की पुकार लगाते हुए आकर सीधे मां के गले से लिपट जातीं। पिछले दो हफ्ते से मां भी किसी अनहोनी की आशंका से गुमसुम सी हैं, आज भी उनसे बात हुई तो आवाज बिल्कुल बुझी-बुझी सी थी। बचपन से उनके बारे में पिताजी और मां से सुनता रहा। वो पढ़ाई में कैसी थीं, उनके पिताजी कैसे अपने साथ लेकर उन्हें सुबह-सुबह घुमाने ले जाते, कैसे उन्होंने स्थानीय स्तर पर संगीत की शिक्षा ली और विद्यालय के समारोहों में गाया करतीं।
जब उनका कैसेट 'पिरितिया' रिलीज हुआ तो हम भाई-बहनों ने जिद करके पिताजी से फिलिप्स का टू-इन-वन खरीदवाया और हमारा पूरा परिवार उनके गाने सुनता। गांव के लोग भी आकर दरवाजे पर इस कैसेट को सुना करते थे। पहले वह सफेद रंग की एंबेसेडर कार से गांव आती थीं, जिसकी छत पर खस की चट्टी पड़ी होती। कार को सड़क से देखते ही हम भाई-बहन भागकर दूर तक पीछे जाते और उन्हें उतरकर अपने मायके वाले घर में जाते देखते। मां को जैसे ही पता चलता कि शारदा आई हैं, वह कुछ अलग व्यंजन की तैयारी में जुट जातीं। फिर एकदम चहकती हुईं शारदा सिन्हा घर आतीं और मां-बाबूजी के साथ देर तक खूब बातचीत करतीं, नाश्ता करतीं, पान खातीं। मां के पास एक पीतल का सरौता है (जिससे सुपारी काटते हैं), वह मांगकर उससे सुपारी (पान के साथ चबाई जाने वाली कसैली) कतरकर पान के साथ जरूर खातीं और फिर विदा लेतीं।
अपने पत्रकार मित्रों में जिन साथियों ने शारदा सिन्हा से एक बार भी मुलाकात की है, सब एक बात का जिक्र जरूर करते हैं कि उनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण है, जो एक बार भी मिला वह उनका कायल हो गया। उनमें गजब का अपनत्व का भाव था। लोग उन्हें शारदा मां या शारदा दीदी कहकर ही बुलाते।
शारदा सिन्हा सिर्फ एक गायिका ही नहीं थीं, वह बिहार और पूर्वांचल की सांस्कृतिक पहचान थीं। सात समंदर पार भी अगर बिहार-यूपी का कोई व्यक्ति रह रहा हो तो शारदा सिन्हा के गाने उन्हें अपनी माटी से जुड़े होने का एहसास दिलाते हैं। शारदा सिन्हा का निधन एक सांस्कृतिक युग का समापन है। शारदा सिन्हा एक ही थीं, उनके समान कोई दूसरा नहीं होगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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