अश्विन के बाद कार्तिक मास आया,
दीपों का त्यौहार है लाया।
जगमग करती आई दिवाली,
पांच पर्वों का है पुंज दिवाली।
धनतेरस को धन्वंतरि जयंती,
रूप चौदस से जगमग चतुर्दशी।
अमावस्या को दीवाली मनाते,
बिना चांद के धारा जगमग होती।
करते गणेश और लक्ष्मी की पूजा,
धन और मंगल के कोई और देव न दूजा।
शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन बनाते,
द्वितीया को अंकुश और भैया दूज मनाते।
ऐसे पूर्ण होता पंच पर्व त्यौहार,
सब लोगों में बढ़ता प्यार।
सूर्य षष्ठी का त्यौहार भी आता,
आस्था का महापर्व कहलाता।
कार्तिक पूर्णिमा है पावन दिन,
मनाते इस दिन देव दिवाली।
सजनी घर में बैठी थी अकेली,
ढुढ़ते उसको आई सहेली।
आंसु पोंछ कर उसे नहलाया,
साफ-सुथरे कपड़े पहनाया।
घर आंगन भी उसका संजाया,
प्रेम सहित त्यौहार मनवाया।
पंच पर्व उससे पूर्ण करवाया,
गणेश लक्ष्मी की आगे शीश झुकवाया।
सूर्य षष्ठी व्रत भी करवाया,
छठी मां से पुत्र आशीष दिलवाया।
आशीष पाकर मिली थोड़ी खुशी,
पर सजना के बिना रहती दुखी।
कहकर गए जल्दी आएंगे,
बहुत सारा धन कमा कर लाएंगे।
न जाने साजन क्यों नहीं आए,
इंतजार में बहुत दिन बीत गए।
मन में तरह-तरह के दु:स्वप्न आते,
मेरे सजना क्यों नहीं आते।
किसके सहारे जिऊंगी मैं,
किस घाट लग पाऊंगी मैं।
- मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
(शिक्षक सह साहित्यकार), सिवान, बिहार
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