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जिन्ना के साथी और पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल की कहानी- विवेचना

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X जोगेंद्रनाथ मंडल की कहानी आज के बांग्लादेश के बारीशाल ज़िले से शुरू हुई थी

जोगेंद्रनाथ मंडल की कहानी तब के पूर्वी पाकिस्तान और आज के बांग्लादेश के बारीशाल ज़िले से शुरू हुई थी. ये ज़िला कई कवियों और राजनेताओं की जन्मभूमि रहा है.

मशहूर बंगाली कवि जीबनानंद दास, कांग्रेस नेता अश्वनी कुमार दत्त और 1991 में बांग्लादेश के राष्ट्रपति बने अब्दुर रहमान बिस्वास इसी ज़मीन से जुड़े रहे हैं.

मंडल ने अपना राजनीतिक जीवन बंगाल में अनुसूचित जातियों के नेता के रूप में शुरू किया था. ब्रजमोहन कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात वरिष्ठ कांग्रेस नेता अश्वनी कुमार दत्त से हुई थी. दत्त उस इलाके के बड़े नेता थे.

मंडल ने 1937 में बाकरगंज में अश्वनी दत्त के भतीजे सरल कुमार दत्ता को हराकर बंगाल प्रांतीय असेंबली में प्रवेश किया था.

वो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़े थे जिन्हें बारीशाल के दलितों और मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था. बाद में वो बंगाल में सहकारिता मंत्री बने.

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आंबेडकर की मदद image x पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल

मंडल ने बंगाल में अखिल भारतीय शिड्यूल्ड कास्ट फ़ेडरेशन की स्थापना की जिसके राष्ट्रीय नेता बाबा साहेब आंबेडकर थे. मंडल के प्रयासों की वजह से ही आंबेडकर को संविधान सभा के लिए बंगाल से चुना गया था.

सन 1946 में वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने आंबेडकर को बंबई से जीतने से रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया था. तब मंडल के अनुरोध पर आंबेडकर ने बंगाल से चुनाव लड़ा था.

मंडल के मुस्लिम लीग से अच्छे संबंधों की बदौलत आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुन लिए गए थे. विभाजन से पूर्व जोगेंद्रनाथ मंडल का नाम पूर्वी बंगाल के सबसे बड़े दलित नेता के तौर पर लिया जाता था.

सन 1946 में ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के दौरान उन्होंने पूरे बंगाल मे घूमकर दलितों को मुसलमानों के पक्ष में खड़ा करने की कोशिश की.

अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि image Getty Images जोगेंद्रनाथ मंडल की मदद से आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए थे

विभाजन से पहले सन 1946 में जो अंतरिम सरकार बनाई गई थी उसमें वो मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि थे.

स्टेनली वोलपर्ट मोहम्मद अली जिन्ना की जीवनी ‘जिन्ना ऑफ़ पाकिस्तान’ में लिखते हैं, “जिन्ना ने वायसराय वॉवेल से मुलाकात कर पहली तेज़ गेंद डाल दी थी और कांग्रेस को चकित कर दिया था. उन्होंने मंत्रिमंडल में अपने पाँच मुसलमान नामों में एक अनुसूचित जाति के सदस्य जोगेंद्रनाथ मंडल का नाम भी पेश किया.”

बाद में वायसराय ने उनसे कहा, ये तो ‘जैसे को तैसा’ वाली बात हो जाएगी.

दरअसल, कांग्रेस ने भी राष्ट्रवादी मुसलमान को नामज़द किया था, इसको उसका जवाब समझा जाएगा. मंडल उस समय बंगाल में कानून मंत्री थे.

ज़ाहिद चौधरी ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान की सियासी तारीख़’ में लिखा, “जिन्ना के अंतरिम सरकार के लिए मंडल को नामज़द करने के फ़ैसले ने ब्रिटेन की लेबर सरकार में खलबली पैदा कर दी. उसको ये डर सताने लगा कि कांग्रेस को ये बहुत नागवार गुज़रेगा और वो सरकार बनाने से अपना हाथ खींच लेंगे.”

जब 15 अक्तूबर, 1946 को वायसराय वॉवेल ने जिन्ना के दिए पाँच नामों को राजा के अनुमोदन के लिए भेजा तो भारतीय मामलों के मंत्री लॉर्ड पैथिक लॉरेंस ने उसका जवाब देते हुए लिखा कि इसको राजा की अनुमति तब तक नहीं मिल सकती जब तक इन नामों को नेहरू को दिखा नहीं दिया जाता.

वैसे तो मंडल संयुक्त बंगाल के पक्षधर थे लेकिन जब 3 जून, 1947 को विभाजन की घोषणा हुई तो उन्होंने विभाजन का समर्थन करने का फ़ैसला किया.

मंडल का मानना था कि दलितों के हितों की रक्षा नेहरू या गाँधी के भारत से बेहतर जिन्ना के पाकिस्तान में बेहतर तरीके से हो सकेगी. उनकी नज़र में दलितों और मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति एक जैसी थी.

सिलहट को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने में भूमिका image Getty Images मोहम्मद अली जिन्ना ने अंतरिम सरकार की कैबिनेट में मंडल का नाम शामिल किया था

3 जून, 1947 के विभाजन के बाद ये तय किया गया कि इस बात पर जनमत संग्रह कराया जाए कि सिलहट ज़िला असम में रहे या पाकिस्तान को दिया जाए.

अहमद सलीम अपनी किताब ‘पाकिस्तान और अक़लियतें’ में लिखते हैं, “जनसंख्या की दृष्टि से सिलहट में हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर थी लेकिन वहाँ बहुत बड़ी संख्या में दलित रह रहे थे जिनका वोट किसी भी पक्ष को विजयी बना सकता था."

"जिन्ना के निर्देश पर मंडल सिलहट पहुंचे थे और उन्होंने दलितों के बीच पाकिस्तान के पक्ष में वोट देने के लिए प्रचार किया था. नतीजा ये रहा कि सिलहट ने पाकिस्तान के साथ जाने का फ़ैसला किया.”

पाकिस्तान के पहले क़ानून और श्रम मंत्री

विभाजन के बाद सन 1947 में मंडल पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बनाए गए. जिस दिन जिन्ना पाकिस्तान के गवर्नर जनरल की शपथ ले रहे थे उन्होंने मंडल को उस सत्र की अध्यक्षता करने के लिए कहा.

बाद में उन्हें पाकिस्तान का पहला क़ानून और श्रम मंत्री बनाया गया. जब पाकिस्तान की संविधान सभा में जिन्ना को क़ायद-ए-आज़म का ख़िताब देने का प्रस्ताव रखा गया तो सभी अल्पसंख्यक सदस्यों ने इसका विरोध किया. जोगेंद्रनाथ मंडल अकेले शख़्स थे जिन्होंने इसका समर्थन किया.

जिन्ना की मृत्यु पर उन्होंने कहा था, “भाग्य ने ऐसे समय पर क़ायद-ए- आज़म को हमसे निर्दयतापूर्वक छीना है जब उनकी हमें बहुत ज़रूरत थी.”

मंडल ने सोचा था कि नए बने देश पाकिस्तान में ‘दलित और मुसलमान भाइयों की तरह रहेंगे’ लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.

दीप हलधर और अभिषेक बिस्वास अपनी किताब ‘बीइंग हिंदू इन बांग्लादेश’ में लिखते हैं, “जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा पूर्वी पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदुओं ने भारत की तरफ़ कूच किया. मंडल को एक अदूरदर्शी और स्वार्थी नेता के तौर पर देखा जाने लगा. कई हलक़ों में पाकिस्तान की तरफ़ उनके झुकाव को देखते हुए उन्हें ‘जोगेन अली मोल्ला’ कहकर पुकारा जाने लगा.”

स्वाभिमान पर चोट image x 1948 में जिन्ना की मृत्यु के बाद जोगेंद्र नाथ मंडल हाशिए पर चले गए

जोगेंद्र नाथ बहुत दिनों तक मंत्री नहीं रह सके. सितंबर, 1948 में जिन्ना की मृत्यु के बाद जोगेंद्र नाथ हाशिए पर चले गए.

ऊँची जाति के अधिकतर हिंदू पूर्वी बंगाल छोड़कर भारत चले गए, ज़्यादातर दलित ही पूर्वी पाकिस्तान में बने रहे. दलित-मुस्लिम एकता की बात करते रहने के बावजूद पूर्वी पाकिस्तन में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा जारी रही.

पाकिस्तान की नौकरशाही के विरोध के चलते उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया.

पीर अली मोहम्मद राशिदी अपनी किताब ‘रूदाद-ए-चमन’ में लिखते हैं, “उस ज़माने में चौधरी मोहम्मद अली फ़ेडरल सचिव हुआ करते थे. पता नहीं किस वजह से उन्हें यकीन हो चला कि मंडल असली देशभक्त नहीं हैं. नतीजा ये हुआ कि उन्होंने कैबिनेट के गोपनीय दस्तावेज़ मंडल से छिपाने शुरू कर दिए. मंडल के स्वाभिमान को इससे बहुत चोट पहुंची और उन्होंने सरकार छोड़ने का मन बना लिया.”

लियाक़त अली मंत्रिमंडल से दिया त्यागपत्र image Getty Images पाकिस्तान के फ़ेडरल सचिव और बाद में पीएम बने चौधरी मोहम्मद अली

सन 1950 में उन्होंने लियाक़त अली सरकार से त्यागपत्र दे दिया.

अपने त्यागपत्र में उन्होंने लिखा, “मुस्लिम लीग के साथ सहयोग करने की मेरी वजह ये थी कि बंगाल में मुसलमानों और अनुसूचित जातियों के हित एक-समान थे. अधिकतर मुसलमान या तो किसान थे या मज़दूर. अनुसूचित जाति के लोगों की भी यही स्थिति थी. दूसरे अनुसूचित जाति के लोग और मुसलमान दोनों शैक्षिक रूप से बहुत पिछड़े हुए थे.”

उन्होंने आगे लिखा, “16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग ने जिस डायरेक्ट एक्शन डे का आयोजन किया था, उसमें हज़ारों लोग मारे गए थे. हिंदुओं ने लीग के मंत्रिमंडल से मेरे इस्तीफ़े की माँग की थी लेकिन मैंने उनकी बात नहीं सुनी थी.”

जोगेंद्र नाथ मंडल ने अपने इस्तीफ़े में आगे लिखा, “मैं यहाँ अपने दृढ़ विश्वास को दोहराना चाहता हूँ कि पूर्वी पाकिस्तान की सरकार अभी तक हिंदुओं को प्रांत से खदेड़ने की नीति पर चल रही है. मुझे ये कहना पड़ रहा है कि पश्चिम पाकिस्तान से हिंदुओं को भगाने की नीति पूरी तरह से कामयाब रही है और पूर्वी पाकिस्तान में भी ये कामयाबी की तरफ़ बढ़ रही है.”

पाकिस्तान छोड़ने का फ़ैसला image Getty Images विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से भी भारी संख्या में लोग भारत आए

15 सितंबर, 1950 को मंडल को पश्चिम पंजाब में मरी में एक सभा की अध्यक्षता करनी थी लेकिन उस दिन उनके पास कलकत्ता से एक तार आया जिसमें बताया गया कि उनका बेटा बीमार है.

मंडल उसको देखने कलकत्ता आए. उनका बेटा तो ठीक हो गया लेकिन उन्होंने पाकिस्तान दोबारा न जाने का फ़ैसला लिया.

बंगाल के दलित हिंदुओं ने कांग्रेस और भारत को नज़रअंदाज़ कर पूर्वी पाकिस्तान में रहने का फ़ैसला किया था, अब उनका कोई नेता नहीं बचा था.

बांग्लादेश में हिंदू अधिकारों के लिए काम करने वाले जयंत कर्माकर कहते हैं, “हमारे लिए तो जोगेंद्र नाथ सबसे बड़े खलनायक थे. बांग्लादेश में इस व्यक्ति की वजह से हिंदुओं को तकलीफ़ों में रहना पड़ रहा है. उन्होंने हमें दलित हिंदू और मुस्लिम एकता की बात करके सब्ज़बाग़ दिखाए. विभाजन के दौरान बहुत से ऊँची जाति के हिंदू भारत चले गए. दलित यहीं रह गए क्योंकि मंडल बड़े नेता थे और वो लोग उनकी तरफ़ बड़ी उम्मीदों से देख रहे थे.”

कर्माकर पूछते हैं, “उन्होंने हमारे लिए क्या किया? उन्होंने इस्तीफ़ा दिया और भारत भाग गए. हम अत्याचार झेलने के लिए वहीं पड़े रह गए. वो खलनायक नहीं तो और क्या हैं?”

भारत में ठंडा स्वागत

भारत वापसी पर भी उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हुआ. उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल आए शरणार्थियों के पुनरुत्थान के लिए काम करने की कोशिश की.

दीप हलधर और अभिषेक बिस्वास लिखते हैं, “जोगेंद्र नाथ पश्चिम बंगाल को अपनी कर्मभूमि बनाना चाहते थे लेकिन उनके अधिकतर दलित हिंदू समर्थकों का उन पर से विश्वास उठ चुका था और उन्होंने मंडल को मसीहा के तौर पर देखना बंद कर दिया था. मंडल अपने पुराने समर्थन और प्रताप को पाने के लिए बीरभूम और 24 परगना ज़िले के शरणार्थी शिविरों में भटकते रहे लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली.”

बीरभूम के उत्तर तिलपारा शिविर में उन्होंने कांग्रेस पर ज़ुबानी हमला करते हुए कहा, “कांग्रेस के नेताओं ने सत्ता के लोभ में विभाजन करवाया.”

उसी सभा में उन्होंने विभिन्न समाचारपत्रों में छपे अपने उन लेखों को पढ़कर सुनाया जिसमें कहा गया था कि वो हमेशा से प्रभुसत्ता संपन्न एकीकृत बंगाल के पक्ष में रहे थे लेकिन उन पर किसी ने विश्वास नहीं किया.

ये वही मंडल थे जिन्होंने जिन्ना का साथ दिया था और दलित हिंदुओं से मुसलमानों का साथ देने की अपील की थी.

image Getty Images मोहम्मद अली जिन्ना कई चुनाव हारे

पश्चिम बंगाल में जोगेंद्रनाथ मंडल का राजनीतिक जीवन कांग्रेस और वामपंथी दलों के उत्थान के कारण परवान नहीं चढ़ पाया.

उनको पहला धक्का 1952 में लगा जब उन्होंने बनियापुकुर-बालीगंज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा जहाँ उन्हें कांग्रेस के उम्मीदवार पुलिन बिहारी खटिक ने हरा दिया.

लोगों को अपनी आँखों पर तब विश्वास नहीं हुआ जब जिन्ना से हाथ मिलाने वाले और 1946 की ‘ग्रेट कैलकटा किलिंग’ के बाद भी हाथ न छोड़ने वाले जोगेंद्र नाथ ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली.

image Getty Images अमृत बाज़ार पत्रिका

बंगाली अख़बार जुगांतर के 3 मई, 1955 के अंक में एक रिपोर्ट छपी जिसमें मंडल के हवाले से कहा गया कि उन्होंने देश और उसके लोगों की मदद करने के लिए कांग्रेस की सदस्यता ली है.

उनका मानना है कि इस तरह उन्हें हिंदू शरणार्थियों का जीवन बेहतर बनाने में मदद मिलेगी. जब 1957 में चुनाव की घोषणा हुई तो मंडल किसी विधानसभा क्षेत्र से टिकट पाने में नाकाम रहे.

उन्होंने विधानसभा में जाने की आख़िरी कोशिश 1964 में की जब उन्होंने एक निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें कांग्रेस के उम्मीदवार रमेश चंद्रा मलिक के हाथों हार का सामना करना पड़ा.

5 अक्तूबर, 1968 को कलकत्ता में जोगेंद्र नाथ मंडल की गुमनामी की हालत में मृत्यु हुई. केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार का कोई प्रतिनिधि शोक व्यक्त करने भी नहीं आया. वो टूटे सपनों के साथ ही इस दुनिया से विदा हुए.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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