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लापता लेडीज़ के ऑस्कर में नामांकन को लेकर किस बात पर हो रहा है विवाद

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Prodip Guha/Getty Images फ़िल्म में मुख्य भूमिका नितांशी गोयल, स्पर्श श्रीवास्तव और प्रतिभा रांटा ने निभाई हैं.

फ़िल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया ने इस साल आमिर ख़ान प्रोडक्शन की किरण राव निर्देशित ‘लापता लेडीज’ को भारत की ओर से ऑस्कर में भेजने की घोषणा की है.

इस घोषणा के साथ ही विवाद शुरू हो गया.

ऐसा कहा जा रहा है कि पायल कपाड़िया की फ़िल्म 'ऑल वी इमेजिन एज लाइट' ज़्यादा बेहतर होती.

इस साल भारत में निर्मित विभिन्न भाषाओं की 29 फ़िल्मों पर विचार किया गया.

इनमें ‘कल्कि 2898 एडी’, ‘एनिमल’, ‘चंदू चैंपियन’, ‘सैम बहादुर’, ‘केट्टूकल्ली’, ‘आर्टिकल 370’ भी विचार के लिए आई थीं.

फ़िल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया की 13 सदस्यों की निर्णायक मंडली ने परस्पर सहमति से किरण राव की ‘लापता लेडीज’ को भेजने की सिफ़ारिश की.

यह फ़िल्म पिछले साल टोरंटो इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की गई थी, लेकिन भारतीय दर्शकों के लिए ये इस साल एक मार्च को सिनेमाघर में रिलीज़ हुई.

उसके ठीक 8 हफ़्तों के बाद यह फ़िल्म ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म नेटफ़्लिक्स पर आ गई.

दावा किया जा रहा है कि नेटफ़्लिक्स पर यह सबसे ज़्यादा देखी जाने वाली फ़िल्म हो गई है.

भारत की ‘लापता लेडीज़’ के साथ 50-52 देशों की फ़िल्में इस श्रेणी में भेजी गई हैं.

ऑस्कर एंट्री के लिए ‘लापता लेडीज़’ के चुने जाने के बाद निर्देशक किरण राव ने कहा, ''यह पहचान हमारी पूरी टीम के अथक कार्य का साक्ष्य है. टीम के समर्पण और पैशन से यह कहानी जीवंत हुई.''

राव ने कहा, ''सिनेमा हमेशा से दिलों को जोड़ने, सीमाओं को तोड़ने और सार्थक विमर्श आरंभ करने का शक्तिशाली माध्यम रहा है. मुझे उम्मीद है कि यह फ़िल्म भारतीय दर्शकों की तरह ही पूरे संसार के दर्शकों को झंकृत करेगी. मैं आमिर ख़ान प्रोडक्शन और जिओ स्टूडियो के अविचल सहयोग और भरोसे के लिए उन्हें धन्यवाद देती हूँ. यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे साथ एक प्रतिभाशाली टीम थी, जिसने इस कहानी को कहने की मेरी प्रतिबद्धता को शेयर किया.''

image Getty Images लापता लेडिज नेटफ्लिक्स पर काफ़ी लोकप्रिय फ़िल्म साबित हुई है आमिर ख़ान के अनुभव का मिलेगा लाभ

‘लापता लेडीज़’ के निर्माता आमिर ख़ान हैं और उनकी प्रोडक्शन की फ़िल्में ‘लगान’ और ‘तारे ज़मीन पर’ पहले इस श्रेणी के लिए भेजी जा चुकी हैं.

इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अपने पिछले अनुभवों का उपयोग करते हुए आमिर ख़ान ‘लापता लेडीज़’ की ऑस्कर एंट्री को ख़ास मुकाम तक पहुंचा सकेंगे.

इस श्रेणी के लिए भेजी गई दुनिया भर की फ़िल्मों को परखने के लिए ऑस्कर की एक निर्णायक मंडली होती है.

उनके संज्ञान में लाने के लिए भेजी गई फ़िल्मों के निर्माताओं को ज़बरदस्त प्रचार और अनेक प्रयोजनों की व्यवस्था करनी पड़ती है.

इस अभियान में भारी रकम ख़र्च होती है. अगर चुनी गई फ़िल्म के पीछे कोई मज़बूत निर्माता नहीं हो तो देखा गया है कि इस प्रचार और ज़रूरी ख़र्च के लिए धनउगाही का अभियान भी चलता है.

प्रतिभाओं की ऊर्जा और मेधा ख़र्च होती है. पांच-छह महीने का पूरा समय भी जाता है. इसके बाद फ़िल्म नमांकित भी न हो पाए तो देश के दर्शकों और फ़िल्म प्रेमियों को काफ़ी निराशा होती है.

ऑस्कर पुरस्कारों के जानकारों के मुताबिक फ़िल्मों को परखने, सराहने और पुरस्कार के योग्य मानने का ख़ास तरीक़ा होता है. इस तरीक़े में भारत समेत कई देशों की फ़िल्में पीछे रह जाती हैं.

मुंबई की हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री और अन्य भाषाओं की फ़िल्म इंडस्ट्री के अनेक फ़िल्मकार इस सालाना ‘ऑस्कर अभियान’ को भारतीय फ़िल्मों के लिए ग़ैरज़रूरी मानते हैं.

कुछ तो यह भी कहते हैं कि भारतीय फ़िल्मों की श्रेष्ठता के लिए ऑस्कर मुहर की क्या ज़रूरत है?

कला, संस्कृति और सिनेमा के भूमंडलीकरण के इस दौर में हम सभी जानते हैं कि हमारी फ़िल्में किस स्तर की बनती हैं और अंतरराष्ट्रीय मंच पर होने कैसी तवज्जो मिलती है?

image Getty Images गोरखपुर से बीजेपी के लोकसभा सांसद रवि किशन भी इस फ़िल्म के अहम किरदार हैं लापता लेडीज़ की विशेषता

किरण राव की ‘लापता लेडीज़’ आज से 23 साल पहले 2001 की कहानी है.

किरण राव ने किसी भी संभावित विवाद और आरोप से बचने के लिए ‘निर्मल प्रदेश’ नामक काल्पनिक राज्य की कहानी चुनी है. यह उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश नहीं है.

फिर भी यह तय है कि पर्दे पर आया यह काल्पनिक प्रदेश (संभवतः बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश) हिंदी भाषी प्रदेश ही है, जिसे राजनीतिक लेखों और अध्ययन में ‘बीमारू प्रदेश’ तक कहा जाता है.

किरण राव ने इस निर्मल प्रदेश की सामाजिक धड़कन को पेश करते हुए समाज में सदियों से मौजूद पुरुष प्रधान सोच को उजागर किया है.

फ़िल्म के लेखकों और निर्देशक ने पैनी दृष्टि से समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और रूढिगत परंपराओं की एक मामूली कहानी को दो महिला चरित्रों के ज़रिए ख़ूबसूरती से पेश किया है.

हिंदी प्रदेश के गंवई-समाज के इन चरित्रों को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने उन्हें उनकी कमज़ोरियों की वजह से हास्यास्पद (कॉमिकल) नहीं होने दिया है.

अच्छी बात है कि फ़िल्म में कोई नारेबाज़ी नहीं है और ना ही आक्रामक स्त्रीवादी सोच का सहारा लिया गया है.

लेखक-निर्देशक ने परतदार हिंदी समाज में महिलाओं की स्थिति और संभावनाओं को संवेदनशील तरीक़े से रोज़मर्रा ज़िंदगी के मामूली प्रसंगों और घटनाओं से बुना है.

यह फ़िल्म समाज में लापता ज़िंदगी जी रही महिलाओं के चित्रण के बहाने विकास और विकसित भारत का दम भरने वाली सत्तारूढ़ राजनीति की वास्तविकता ज़ाहिर करती है.

फ़िल्म की मूल कहानी के साथ टिप्पणियों, दृश्यों और कहकहों में वर्तमान समय में मौजूद अनेक सामाजिक विसंगतियों भी प्रकट हुई हैं.

लंबे समय के बाद किसी हिंदी फ़िल्म में गांव-देहात दिखाई पड़ा है. खेत-खलिहान और गांव की पगडंडियों के साथ रोज़मर्रा ज़िंदगी में उपयोगी साधन-सुविधाओं का दर्शन हुआ है. असुविधाएं भी प्रकट हुई है.

हमें (शहरी दर्शकों) दिखता और पता चलता है कि भारतीय गांव-देहात विकास की होड़ में कहीं पीछे छूट गए हैं.

खुलेपन और आधुनिकता की लहर अभी तक वहां नहीं पहुंची है. इस समाज में अधिकांश गतिविधियां शिथिल हैं.

image Getty Images किरण राव के साथ लापता लेडीज के अहम किरदार धीमी रफ़्तार की ज़िंदगी की कहानी

हालांकि धीमी रफ़्तार की ज़िंदगी में क्लेश नहीं है, लेकिन उनके परिवेश और जीवन को देखकर आश्चर्य भी होता है कि क्यों विकास की धारा इन इलाक़ों तक नहीं पहुंची?

क्यों उनकी ज़िंदगी जटिल हो गई? फ़िल्म में दृश्यमान परिवेश पर निर्देशक की चौकस नज़र है, जबकि उन्हें फूल और जया की कहानी कहनी है. भाषा, वेशभूषा, संवाद और माहौल में गंवई सहजता है.

किसी भी प्रकार की कृत्रिमता का एहसास नहीं होता, जबकि फ़िल्म निर्माण में नैसर्गिक माहौल में दृश्य विधान के लिए अनुकूल तब्दीली करनी पड़ती है.

थोड़ी भी चूक हो तो दृश्य, परिवेश, सेट और कॉस्ट्यूम नकली लगने लगते हैं. ‘लापता लेडीज़’ की क्रिएटिव और टेक्निकल टीम के संयुक्त प्रयास से सब कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है.

फूल और जया दो दुल्हनें हैं. शादी के बाद वे एक ही ट्रेन से यात्रा कर रही है. लगन का समय है. ट्रेन के डब्बे में और भी दुल्हनें बैठी हैं.

लगभग सभी ने नाक तक घूंघट काढ़ रखी है. यह घूंघट उन दुल्हनों की वास्तविकता के साथ एक सामाजिक रूपक भी है. हड़बड़ी और बेख्याली में दुल्हनें बदल जाती हैं.

फेरबदल के इस संयोग पर हंसी आती है, लेकिन चरित्रों के साथ आगे बढ़ने पर हमें स्थिति की जटिलता समझ में आती है.

बतौर दर्शक चरित्रों के साथ हम भी चिंतित होते हैं कि फूल और जया कैसे सही ठिकानों तक पहुँचेंगी?

कहीं उनके साथ कुछ अप्रिय तो ना हो जाएगा? फूल और जया की परिस्थितियां अलग होने के बावजूद एक सी हैं. दोनों का वर्तमान अनिश्चय के घेरे में है.

फूल अपनी सादगी और जया अपनी होशियारी के बावजूद पुरुष प्रधान समाज के संजाल में फंस चुकी है.

दोनों के पति स्वभाव में अलग है. दीपक अपनी सोच में प्रगतिशील है, लेकिन प्रदीप रूढ़िवादी और पुरुषवादी समझदारी रखता है.

फूल, जया, दीपक और प्रदीप इन चारों चरित्रों के ताने-बाने में महिलाओं की अस्मिता, पहचान और प्रतिष्ठा के सवाल उठते हैं. किरण राव ने अत्यंत सरल तरीक़े से इन सवालों को प्रस्तुत करते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातें कह दी हैं.

image Getty Images किरण राव कलाकारों ने दिखाया दम

बिप्लव गोस्वामी, स्नेहा देसाई और दिव्यनिधि शर्मा के लेखन में नवीनता है. ऊपर से उनके गढ़े किरदारों में आए नए कलाकारों से दर्शकों की कोई पूर्व धारणा नहीं बनती.

उनके अपने और व्यवहार में नयापन है. परिचित कलाकार नए किरदारों में भी घिसे-पिटे आचरण से नीरस लगने लगते हैं, क्योंकि दर्शकों को उनकी प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान हो जाता है.

‘लापता लेडीज़’ में किरण राव ने एक रवि किशन के अलावा किसी लोकप्रिय कलाकार को नहीं चुना है.

रवि किशन भी अपनी प्रचलित छवि से भिन्न एक मामूली किरदार में है. वह अपने अनोखे अंदाज़, अदाकारी और भाव-भंगिमा से मिले किरदार को आत्मीय बना देते हैं.

और फिर उनके किरदार में जो ट्विस्ट और शिफ़्ट आता है, वह उन्हें दर्शकों का प्रिय भी बना देता है.

‘लापता लेडीज़’ के आलोचकों का मानना है कि दशकों से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ग़रीबी, दुर्दशा और कमियों पर केंद्रित फ़िल्में भेजते रहे हैं.

‘लापता लेडीज़’ नई कोशिश है. बहुभाषी भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में हर साल फ़िल्मों के चुनाव को लेकर विवाद होता ही है. चूंकि फ़िल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया मुंबई में स्थित है.

image Getty Images किरण राव की लापता लेडीज व्यावसायिक रूप से भी काफ़ी सफल फ़िल्म रही है क्या क्या हैं सवाल?

सबसे ज़्यादा हिंदी फ़िल्में ही विचार के लिए आती हैं और निर्णायक मंडली में भी मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि रहते हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि हिंदी फ़िल्में ही मोटे तौर पर चुनी जाती हैं.

इस साल भी विचार के लिए आई 29 फ़िल्मों में से 14 फ़िल्में हिंदी की रही हैं.

सवाल तो निर्णायक मंडली के सदस्यों की योग्यता पर भी होते हैं. एक सुझाव भी आया था कि राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म को ही ऑस्कर एंट्री के लिए भेजा जाए.

पिछले सालों में विचार के लिए भेजी जाने वाली फ़िल्म के साथ जमा किए जाने वाले आवश्यक भारी शुल्क की भी आलोचना हुई है.

अनेक फ़िल्मकार शिकायत करते हैं कि उन्हें फ़िल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया कि इस गतिविधि की जानकारी समय पर नहीं मिल पाती है.

इसके अलावा अनेक निर्माता अपनी फ़िल्मों को विचार के लिए भेजते ही नहीं हैं. वहीं दूसरी तरफ़ समर्थ निर्माता अपनी साधारण फ़िल्मों की भी एंट्री कर देते हैं.

ऑस्कर के सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म की श्रेणी में भेजी जाने वाली फ़िल्मों के साथ एक जिज्ञासा तो बनती ही है कि आख़िर हमारी फ़िल्मों का प्रदर्शन कैसा रहा? छन कर आई कुछ ख़बरों और तस्वीरों से हम ख़ुश होते रहते हैं.

बहरहाल, हर साल भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में सितंबर से फरवरी के बीच 'ऑस्कर अभियान' चलता है.

इस अभियान की सच्चाई से भी हमलोग वाकिफ़ हैं. 2001 में आमिर ख़ान प्रोडक्शन की आशुतोष गोवारिकर निर्देशित फ़िल्म ‘लगान’ नामांकन सूची तक पहुँच पाई थी.

उसके पहले और बाद हर साल एक फ़िल्म भेजी जाती है, लेकिन अभी तक सिर्फ़ तीन बार भारतीय फ़िल्मों को नामांकन मिल पाया है.

रिकॉर्ड के मुताबिक़ 1957 से हर साल एक भारतीय फ़िल्म इस श्रेणी के लिए भेजी जाती है, किंतु अभी तक सिर्फ़ ‘मदर इंडिया’(1957), ‘सलाम बॉम्बे’(1988) और ‘लगान’(2001) ही नामांकन तक पहुँच पाई हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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