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Opinion: जेलों में जाति नहीं लिखी जाएगी, फिर पढ़ाई-परीक्षा और नौकरी में कास्ट का जिक्र क्यों?

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ओमप्रकाश अश्क, पटना: सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति के आधार पर कैदियों से भेदभाव को गंभीर माना है। इस प्रथा को खत्म करने की जरूरत सर्वोच्च अदालत ने बताई है। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसे रोकने के लिए कई निर्देश भी जारी किए हैं। जेल नियमावली में इसके लिए संशोधन की सलाह सुप्रीम कोर्ट ने दी है। अदालत का मानना है कि जाति के आधार पर काम कराना उचित नहीं। निचली जाति के कैदियों से खतरनाक परिस्थितियों में सीवर टैंकों की सफाई की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इससे बचने के लिए सर्वोच्च अदालत ने जेलों के रजिस्टर में कैदियों की जाति का काम हटाने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट का कैदियों पर मानवीय फैसलासुप्रीम कोर्ट ने शायद मानवीय आधार पर यह फैसला सुनाया है। आमतौर पर अदालती फैसलों पर प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करने की परंपरा रही है। मगर, ये गंभीर सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट को जब कैदियों को जाति के आधार पर काम सौंपने की बात इतनी ही अखरती है तो दूसरे भी ऐसे क्षेत्र हैं, जहां जाति के नाम पर डिस्क्रिमनेशन साफ दिखाई देता है। राजनीतिक पार्टियां, खासकर विपक्ष में बैठने वाले दलों के नेता जाति को आधार बना कर ही राजनीति करते रहे हैं। कास्ट कैटेगरी के आधार पर SC/ST लोकसभा और विधानसभा की सीटें रिजर्व हैं। जातियों की पहचान और संख्या जानने के लिए राजनीतिक पार्टियां जाति जनगणना के लिए बेताब हैं। अब तो यह चुनावी मुद्दा भी बनने लगा है। इसका लाभ भी राजनीतिक दल उठा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट को निचली जातियों की अगर इतनी ही चिंता है तो देश से जाति प्रथा ही खत्म कर देने का आदेश दे देना चाहिए। न रहेगा बांस और न बनेगी बांसुरी। हर क्षेत्र में जाति जरूरी तो जेलों में क्यों नहीं?मानव सभ्यता के हजारों साल बाद भी जाति सच्चाई बनी हुई है। सरकारी प्रावधान तो ऐसी हैं कि स्कूलों में नामांकन से लेकर नौकरी और फिर प्रमोशन तक में जाति लिखना जरूरी है। सरकारी लाभ लेने के लिए जातीय खांचे में बने रहना तो और जरूरी है। निचली जाति के लोगों के लिए नौकरी में आरक्षण जाति के आधार पर ही मिलता है। स्कूल-कालेज में भी नामांकन में जाति के आधार पर आरक्षण है। आरक्षण के लिए तो ऐसी मारामारी है कि लोग इस बाबत अफवाह को भी सच मान लेते हैं। हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की हालत इसलिए खराब हो गई कि विपक्ष ने जाति के आधार पर आरक्षण खत्म करने की अफवाह उड़ा दी। भाजपा पिछले दो लोकसभा चुनावों का परफार्मेंस रिपीट नहीं कर पाई। फिर जेलों में जाति का कालम हटा कर क्या हासिल किया जा सकता है? जाति पर ही चल रही है विपक्ष की राजनीतिजाति पर राजनीतिक दलों का कितना जोर है, यह बिहार के जाति सर्वेक्षण से समझा जा सकता है। बाद में कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक के दूसरे दलों ने तो राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की बात कह दी। जातियों की संख्या के आधार पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आरक्षण का लोकसभा चुनाव में वादा कर दिया। पिछड़ी जातियों की आरक्षण का उचित लाभ दिलाने के लिए जिस देश में आयोग तक बनते रहे हैं और सरकारें उन आयोगों की रिपोर्ट पर अमल करती रही हैं, वहां जेलों से जाति का कालम हटा कर कुछ हासिल हो पाएगा, कहना मुश्किल है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि लाभ लेने के लिए किसी को अपनी जाति बताने में एतराज नहीं, लेकिन अपराध के आरोप लगने या साबित होने पर जेल गए कैदी को जाति बताने से रोकना उचित नहीं लगता, लेकिन चूंकि अदालती फैसलों पर सवाल उठाना भी अदालत का अवमानना हो सकता है, इसलिए सिर्फ सलाह ही दी जा सकती है कि जाति का सिस्टम हर मामले में समाप्त कर देना चाहिए।
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