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लाल बहादुर शास्त्री मोरारजी को पीछे छोड़ कैसे बने थे देश के दूसरे प्रधानमंत्री

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Getty Images लालबहादुर शास्त्री (फ़ाइल फ़ोटो)

1960 के दशक में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक रहे फ़्रैंक मोरेस की किताब नेहरू के जीवनकाल में छपी थी. उसका नाम था ‘इंडिया टुडे’. इसमें उन्होंने देश का दूसरा पीएम बनने के दावेदारों के बारे में विस्तार से लिखा था.

उनकी नज़र में उस समय की तीन शख़्सियतें थीं जो नेहरू की जगह ले सकती थीं.

एक तो थे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद. दूसरे थे गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत और तीसरे थे वित्त मंत्री मोरारजी देसाई.

लेकिन उन्होंने ये भी लिखा था,''इन तीनों दावेदारों में स्वास्थ्य और व्यक्तित्व संबंधी समस्याएँ हैं, इसलिए एक पूरे 'डार्क हॉर्स' के उदय की संभावना को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता. उनमें सबसे पहले नाम लिया जाना चाहिए 55 साल के वर्तमान वाणिज्य और उद्योग मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का.

उन्होंने लिखा, ''वो भी उत्तर प्रदेश से आते हैं. निजी और राजनीतिक रूप से नेहरू के बहुत क़रीब हैं लेकिन उनका व्यक्तित्व दबंग नहीं है. वो छोटे क़द के हैं और उनका स्वभाव संकोची है.''

image BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें ‘नेहरू के बाद कौन?’ image Getty Images नेहरू के बाद प्रधानमंत्री कौन होगा, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी

नेहरू के निधन से कुछ समय पहले वेलेस हैंगेन की एक किताब आई थी 'आफ़्टर नेहरू हू?' जिसमें नेहरू के आठ संभावित उत्तराधिकारियों की चर्चा की गई थी.

ये लोग थे मोरारजी देसाई, वीके कृष्ण मेनन, लाल बहादुर शास्त्री, यशवंत राव चव्हाण, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, एसके पाटिल और बृज मोहन कौल.

हैंगेन इस नतीजे पर पहुंचे थे कि लाल बहादुर शास्त्री की नेहरू का पद पाने की संभावना सबसे अधिक है.

उन्होंने लिखा था,''वो भारत की मिट्टी और अंतर्मन के सबसे अधिक नज़दीक हैं. वो भारतीय गाँवों की मज़बूती और कमज़ोरी दोनों को समझते हैं. पार्टी और लोगों के समर्थन की बदौलत वो नेहरू की जगह ले सकते हैं.''

''लेकिन सबसे बड़ी अड़चन है, उनका संकोची व्यक्तित्व और ख़राब स्वास्थ्य. मंत्रिमंडल में उनके एक साथी का कहना है कि पहले दिल के दौरे से कोई ख़ास नुकसान नहीं हुआ था लेकिन दूसरा या तीसरा दिल का दौरा उन्हें निष्क्रिय बना सकता है.''

शास्त्री बने बिना विभाग के मंत्री image BBC जब लाल बहादुर शास्त्री को बिना विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया तो ये चर्चा चल पड़ी कि ये उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार करने की तरफ़ उठाया गया एक क़दम है

सन 1964 के शुरू में नेहरू के उत्तराधिकारी की चर्चा फिर तेज़ हुई, जब सात जनवरी को उन्हें भुवनेश्वर में लकवा मार गया.

24 जनवरी को जब लाल बहादुर शास्त्री को बिना विभाग के मंत्री नियुक्त किया गया तो ये चर्चा चल पड़ी कि ये उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार करने की तरफ़ उठाया गया एक क़दम है.

मशहूर ब्रिटिश अख़बार 'द गार्डियन' ने अपने 23 जनवरी, 1964 के अंक में लिखा, ''ऐसा लगता है कि लाल बहादुर शास्त्री को भारत के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर तैयार किया जा रहा है. वो मध्यमार्गी हैं और कांग्रेस के वामपंथी खेमे को मोरारजी देसाई से अधिक स्वीकार्य हैं. उसी तरह कांग्रेस का दक्षिणपंथी वर्ग उन्हें कृष्ण मेनन की तुलना में अधिक तरजीह देगा. क्लेमेंट एटली की तरह शायद उनका सबसे बड़ा गुण ये है कि उन्हें सबसे कम नापसंद किया जाता है.''

प्रधानमंत्री पद के लिए गहन मंत्रणा image Oxford University Press तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन और कांग्रेस नेता कामराज (बीच में) के साथ लाल बहादुर शास्त्री

22 मई, 1964 को नेहरू ने एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया था. वहाँ भी उनसे सवाल पूछा गया था कि क्या वो अपने जीवन काल में अपने उत्तराधिकारी को तैयार कर रहे हैं?

नेहरू का जवाब था, ''मैं इतनी जल्दी मरने नहीं जा रहा.''

ऐसा कहने के पाँच दिनों के अंदर ही 27 मई को नेहरू का निधन हो गया था.

29 मई को कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने नेतृत्व के मुद्दे पर कई कांग्रेस नेताओं जैसे लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, टीटी कृष्णाचारी, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात की.

30 मई को 18 अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के सांसदों ने तय किया जगजीवन राम को पार्टी नेता का चुनाव लड़ना चाहिए.

गुलजारी लाल नंदा के समर्थकों ने दलील दी कि उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर और कुछ महीने काम करने दिया जाए ताकि नेहरू के जाने के दुख से उबर रहे कांग्रेस संसदीय दल को दीर्घकालीन विकल्प चुनने का पर्याप्त समय मिल जाए.

लेकिन इस प्रस्ताव को सांसदों का बहुत अधिक समर्थन नहीं मिला.

उसी दिन मोरारजी देसाई की कामराज से लंबी बातचीत हुई और उन्होंने पत्रकारों से कहा कि अगर लोग उन्हें इस पद के योग्य समझते हैं तो वो नेतृत्व का चुनाव लड़ने से पीछे नहीं हटेंगें.

शास्त्री के निजी सचिव रहे सीपी श्रीवास्तव उनकी जीवनी 'अ लाइफ़ ऑफ़ ट्रुथ इन पॉलिटिक्स' में लिखते हैं, ''30 मई को ही लाल बहादुर शास्त्री इंदिरा गांधी से मिले और उनसे अनुरोध किया,''अब आप मुल्क को संभाल लीजिए. इंदिरा गांधी ने इस अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कहा कि वो अभी इतने दुख में हैं कि वो नेतृत्व का चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकतीं. शास्त्री चाहते थे कि उन्हें इंदिरा के मन के अंदर क्या चल रहा है, पता चल जाए.''

मोरारजी देसाई के समर्थक सक्रिय image BBC मोरारजी देसाई (फ़ाइल फ़ोटो)

31 मई को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई, जिसमें तय हुआ कि इस बात के सभी प्रयास किए जाने चाहिए कि नेता का चुनाव सर्वसम्मति से हो.

इस बैठक के अंत में कार्यसमिति ने पार्टी अध्यक्ष कामराज को अधिकृत किया कि राज्य के मुख्यमंत्रियों और पार्टी के वरिष्ठ सांसदों से मिलकर इस पद के लिए आम राय बनाएं.

पर्दे के पीछे प्रधानमंत्री पद के लिए ज़बर्दस्त प्रचार चल रहा था.

कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा, ''बियॉन्ड द लाइंस'' में लिखते हैं, ''त्यागराज मार्ग पर मोरारजी देसाई का घर गतिविधियों का अड्डा बना हुआ था. घर के बरामदे और लॉन में लोग भरे हुए थे. उनके दो समर्थक वित्त राज्य मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा और कांति देसाई के हाथों में कांग्रेस सांसदों की एक लिस्ट थी और वो उनके सामने टिक लगा रहे थे कि वो देसाई के समर्थक हैं या शास्त्री के.''

नैयर ने लिखा, ''मैं जब देसाई के घर माहौल का जायज़ा लेने गया तो उनके समर्थकों का रुख़ साफ़ था कि चाहे जो हो जाए मोरारजी चुनाव लड़ेंगे और शर्तिया जीतेंगे. उन्होंने ये भी बताया कि किस तरह पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों, ओडिशा के बीजू पटनायक, गुजरात के बलवंत राव मेहता और उत्तर प्रदेश के चंद्रभानु गुप्त ने उन्हें अपने समर्थन का वादा कर दिया है.''

कांति भाई देसाई ने मुझसे कहा, ''अपने शास्त्री से कह दो चुनाव न लड़ें.''

कुलदीप नैयर ने लिखा है, ''उन्हें पता था कि मैं शास्त्री के सूचना अधिकारी के तौर पर काम कर चुका था.''

मोरारजी देसाई चुनाव लड़ने पर अड़े

कुलदीप नैयर लिखते हैं, ''शाम को मैं शास्त्री के घर गया. उन्होंने मुझसे कहा, मैं सर्वसम्मति से चुना जाना चाहता हूँ. लेकिन अगर चुनाव ज़रूरी हो जाए तो मैं मोरारजी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ना चाहूँगा क्योंकि मैं उन्हें हरा सकता हूँ, इंदिरा जी को नहीं.''

शास्त्री ने कुलदीप नैयर को मोरारजी देसाई तक उनका एक संदेश पहुंचाने के लिए कहा.

उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए दो नाम सुझाए. पहला जयप्रकाश नारायण का और दूसरा इंदिरा गांधी का.

नैयर ने लिखा है, ''मोरारजी देसाई ने जयप्रकाश नारायण का नाम सुनते ही कहा, वो कन्फ़्यूज़्ड व्यक्ति हैं.’ इंदिरा गांधी के लिए उन्होंने 'दैट चिट ऑफ़ अ गर्ल' विशेषण का इस्तेमाल किया. देसाई ने संकेत दिया कि चुनाव टालने का एकमात्र उपाय है कि उन्हें नेता चुन लिया जाए.''

शास्त्री के पक्ष में बना माहौल image Getty Images 1962 में गुजरात की एक जनसभा में लालबहादुर शास्त्री. उस समय वो विदेश मंत्री थे

अगले दिन समाचार एजेंसी यूएनआई ने एक रिपोर्ट छापी,''प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे पहले रिंग में अपनी टोपी पूर्व वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने फेंकी है. बिना विभाग के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को इस पद के लिए दूसरा उम्मीदवार समझा जा रहा है. हालांकि इस संबंध में उन्होंने अपनी कोई राय ज़ाहिर नहीं की है. उनके नज़दीक के सूत्रों का कहना है कि वो जहाँ तक संभव हो चुनाव लड़ने से बचना चाहेंगे.''

कुलदीप नैयर लिखते हैं, ''मेरी लिखी हुई यूएनआई की इस रिपोर्ट ने मोरारजी की उम्मीदवारी को बहुत नुक़सान पहुँचाया. संसद की सीढ़ियाँ उतरते समय कामराज मेरे कान में फुसफुसाए, 'आपका धन्यवाद.'

शास्त्री ने मुझे अपने घर बुलाकर कहा, 'अब आप कोई रिपोर्ट नहीं छापेंगे.'

नैयर ने लिखा, ''मोरारजी देसाई ने इसके लिए मुझे कभी माफ़ नहीं किया जबकि इसका दोष उनके समर्थकों को दिया जाना चाहिए. वो नेहरू की मृत्यु के दिन से ही कह रहे थे कि प्रधानमंत्री का पद अब उनकी जेब में हैं. इस तरह की बातों ने माहौल शास्त्री के पक्ष में बना दिया.''

शास्त्री चुने गए कांग्रेस के नेता image Getty Images गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीवराज मेहता (दाएं) लाल बहादुर शास्त्री का स्वागत करते हुए (फ़ाइल फ़ोटो)

कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने एलान किया कि बहुमत शास्त्री के पक्ष में है और उनको औपचारिक रूप से पार्टी का नेता चुनने के बाद प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जाएगी.

दो जून, 1964 को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री पद के लिए गुलजारी लाल नंदा ने लाल बहादुर शास्त्री का नाम प्रस्तावित किया, जिसका मोरारजी देसाई ने अनुमोदन किया. शास्त्री को सर्वसम्मति से कांग्रेस पार्टी का नया नेता चुना गया.

मोरारजी देसाई ने शास्त्री के नाम का अनुमोदन भले ही कर दिया हो लेकिन उन्होंने इसे दिल से कभी पसंद नहीं किया.

बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द स्टोरी ऑफ़ माई लाइफ़' में लिखा, ''उस समय हर जगह चर्चा थी कि नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस टूट जाएगी. मेरा मानना था कि अगर कांग्रेस टूटती है तो देश का बहुत बड़ा नुकसान होगा. इसलिए मैंने चुनाव से हट जाने का फ़ैसला किया और कामराज के सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री चुनने के फ़ैसले का समर्थन कर दिया.''

कैबिनेट में शामिल होने से इनकार image Getty Images मोरारजी की बारी सन 1977 में आई जब जनता पार्टी की जीत के बाद उन्हें पार्टी के नेता चुना गया और वो भारत के चौथे प्रधानमंत्री बने

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद लाल बहादुर शास्त्री मोरारजी देसाई को अपने मंत्रिमंडल में जगह देना चाहते थे.

जब मोराजी देसाई ने पूछा कि कैबिनेट में वरिष्ठता क्रम में उनका स्थान क्या होगा तो लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें गुलजारी लाल नंदा के बाद नंबर तीन का स्थान देने की पेशकश की क्योंकि नंदा उस समय कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.

मोरारजी देसाई लिखते हैं, ''मैंने शास्त्री से कहा गुलजारी लाल नंदा मुझसे जूनियर हैं और वो संयोगवश ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री हैं. अगर कामराज योजना न आई होती तो कार्यवाहक प्रधानमंत्री मैं बनता. शास्त्री ने कहा कि इंदिरा जी भी गुलजारी लाल नंदा को नंबर-2 बनाने पर ज़ोर दे रही हैं. मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि नंबर तीन होने के बावजूद आपके महत्व में कोई कमी नहीं आएगी. तब मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मंत्रिमंडल के बाहर रहकर भी मैं जितना संभव है, उतना सहयोग करूँगा.”

सन 1966 में इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ भी मोरारजी देसाई ने पार्टी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, जिसमें उनकी हार हुई. मोरारजी की बारी सन 1977 में आई जब जनता पार्टी की जीत के बाद उन्हें पार्टी के नेता चुना गया और वो भारत के चौथे प्रधानमंत्री बने.

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